Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० ५८ ]
उत्तरपर्याडपदेससंकमे संकमट्ठाणाि
चरिमफाली होइ ति । एदेण कोरणेणा संखेज्जगुणत्तमेदेसिं ण विरुज्झदे ।
* कोहे पदेससंकमद्वाणाणि विसेसाहियाणि ।
६ ७६५. केत्तियमेत्तो विसेसो ! अपच्चक्खाणमाणपदेससंक मट्ठाखाणि आवलियाए असंखेज्जभागेण खंडेऊण तत्थेयखंडमेन्तो । तं जहा - अपच्चक्खाणमाणुकस्ससव्वसंकमदव्त्रमपच्चक्खाणकोहस्स सव्वसंकमुकस्सदव्वादो सोहिय सुद्धसेसमेत्तपयडिविसेसदव्वमणिय पुत्र ठवेयव्वं । एवं पुध दुविदे सेसदव्बं दोन्हं पि समाणं होई । एदम्हादो समुपण्णा से सहेट्ठिम संकमट्ठाणाणि दोन्हं पि सरिसाण होंति जइ दोपहं पि चरिमफालीओ जहणीओ सरिसीओ होज । णवरि जहण्णचरिमफालीओ दोन्हं पि सरिसीओ ण होंति, माणजहण्णचरिमफालीदो कोहजहण्णचरिमफालीए पय डिविसेसमेत्तेप सादिरेयत्तदंसणादो । एदेण कारणेण हेडिमसंक मट्ठाणेसु अपच्चक्खाणमाखेण लद्धसंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि भवंति, जहण्णचरिमफालिविसेसमेत्ताणं चैव संकमद्वाणाणमेत्याहियाणमुवलंभादो । तदो पुव्त्रमवणेण पुत्र डुविदपय डिविसेसमेत्तकस्सचरिमफालिविसेसादो एदम्मि जहण्णफा लिविसेसे सोहिदे सुद्धसे सम्मि जत्तिया परमाण तेत्तियमेत्ताणि चैत्र संकमट्ठाणाणि अपच्चक्खाणकोहेणुवरिमपुव्वाणि लद्धाणि, तेत्तिय - मेत्तसंक मट्ठा रोहिं विसेसा हियत्तमेत्थ दट्ठव्वं । एसो अत्थो उवरि पय डिविसेसेण
है । इस कारण इनका असंख्यातगुणापन विरोधको नहीं प्राप्त होता । * उनसे क्रोधमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
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७६५. शंका - विशेषका प्रमाण क्या है ?
समाधान—प्रत्यख्यानावरण मानके प्रदेशसंक्रमस्थानोंको आवलिके असंख्यातवें भागभाजित कर वहाँ जो एकभाग लब्ध आवे उतना विशेषका प्रमाण है । यथा -- प्रत्याख्यान मानके उत्कृष्ट सर्वसंक्रमद्रव्यको अप्रत्याख्यान क्रोधके सर्वसंक्रमसम्बन्धी उत्कृष्ट द्रव्यमें से घटाकर शुद्ध शेषमात्र प्रकृति विशेषके द्रव्यको पृथक् स्थापित करना चाहिए । इस प्रकार पृथक् स्थापित करने पर शेष द्रव्य दोनोंका ही समान होता है तथा इससे उत्पन्न हुए अशेष अधस्तन संक्रमस्थान दोनों ही समान होते हैं, यदि दोनोंकी ही जघन्य अन्तिम फालियाँ सदृश होवें । परन्तु इतनी विशेषता है कि दोनोंकी जद्यम्य जतिन्म फलियाँ सदृश नहीं होतीं, क्योंकि मानकी जघन्य अन्तिम फालिसे क्रोधकी जघन्य अन्तिम फालि प्रकृति विशेषमात्र अधिक देखी जाती है। इस कारण से अधस्तन संक्रमस्थानोंमें अप्रत्याख्यान मानकी अपेक्षा अप्रत्याख्यान क्रोधके प्राप्त हुए संक्रमस्थान विशेष अधिक होते हैं, क्योंकि जघन्य अन्तिम फालिमें विशेषका जितना प्रमाण है उतने ही संक्रमस्थान यहाँ पर अधिक उपलब्ध होते हैं। इसलिए पूर्वके द्रव्यको घटाकर पृथक स्थापित प्रकृतिके विशेष प्रमाण उत्कृष्ट अन्तिम फालिसम्बन्धी विशेषमेंसे इस जघन्य फालि सम्बन्धी विशेषको घटा देने पर शुद्ध शेषमें जितने परमाणु होते हैं उतने ही संक्रमस्थान अप्रत्याख्यान क्रोधके श्राश्रयसे उपरिम पूर्व होकर प्राप्त होते हैं, इसलिए इतने मात्र संक्रमस्थान विशेष अधिक