Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 505
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ भावत्थो । संपहि एदेहिं दोहि मि सुत्तेहिं समप्पिदत्थस्स फुडीकरणट्ठमेत्थ किंचि परूवणं कस्सामो । तं जहा-बारसकसाय-इत्थि-णवुसय०-अरदि-सोगाणमप्पप्पणो जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण अघापवत्तकरणचरिमसमए वट्टमाणस्स जहण्णसंतकम्मेण जहण्णपरिणामणिबंधणविज्झादसंक्रममस्सिऊण जहण्णसंकमट्ठाणमुप्पजदि । पुणो तम्मि चेव असंखेजलोगभागुत्तरं संकमट्ठाण होदि । एवं जहण्णए कम्मे असंखेजा लोगा संक्रमट्ठाणाणि होति । तदो पदेसुत्तरे दुपदेसुत्तरे वा एवमणंतभागुत्तरे वा जहण्णसंतकम्मे ताणि चेव संकमट्ठाणाणि ? कुदो तारिससंतकग्मवियप्पाणमपुणरुत्तसंकमट्ठाणंतरुप्पत्तीए अणिमित्तभावोदो । तदो असंखेजलोगभागे पक्खित्ते विदियसंकमट्ठाणपरिवाडी होइ, एगसंतकम्मपक्खेवमेत्ते जहण्णसंतकम्मादो वहिदे वि सरिससंकमट्ठाणतरुप्पत्तीए णिव्वाहमुवलंभादो । एवं सव्वासु परिवाडीसु णेदव्वमिच्चादिमिच्छत्तभंगेण सव्यमणुगंतव्वं । णवरि अधापवत्तसंकमविसए वि एदेसि कम्माणमसंखेजलोगमेत्तसंकमट्ठाणाणि अस्थि, तेसिपि परूवणा जाणिय कावव्या । ६७८४. एवं हस्स-रइ-भय-दुगुछाणं पि वत्तव्वं । णवरि अपुवकरणावलियपवठ्ठचरिमसमए अधापयत्तसंक्रमेण जहण्गसामित्तमेदेसिं जादमिदि अधापवत्तसंकमणिबंधणागि असंखेज्जलोगमेत्तसंकमट्ठाणाणि तत्थुप्पाइय गेण्हियव्याणि । तदो अणियट्टि लिए यहाँ पर कुछ प्ररूपणा करेंगे। यथा-नपुंसकवेद, अरति और शोकका अपना अपना जो जवन्य स्वामित्व है उस विधिसे आकर अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें विद्यमान जीवके जघन्य सत्कर्मके साथ जवन्य परिणाम निमित्तक विध्यातसंक्रमका आश्रय कर जघन्य संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। पुनः उसोमें ही असंख्यात लोक भाग अधिक संक्रम स्थान उत्पन्न होता है । इस प्रकार जघन्य कर्ममें असंख्यात लोकमात्र संक्रमस्थान होते हैं। इसके बाद एक प्रदेश अधिक, दो प्रदेश अधिक इस प्रकार अनन्तभाग अधिक जघन्य सत्कर्ममें वे ही संक्रमस्थान होते हैं, क्योंकि उस प्रकारके सत्कर्म विकल्प अपुनरुक्त संक्रमस्थानोंकी अनन्तर उत्पत्तिमें निमित्त नहीं हैं। इसके बाद असंख्यात लोक भागके प्रक्षिप्त करने पर दूसरी संक्रमस्थान परिपाटी होती है, क्योंकि जघन्य सत्कर्मसे एक सत्कर्म प्रक्षेपमात्र बढ़ाने पर भी सदृश संक्रमस्थानकी अनन्तर उत्पत्ति निर्वाध उपलब्ध होती है । इस प्रकार सब परिपाटियोंमें ले जाना चाहिए' इत्यादि मिथ्यात्वके भंगसे सब जान लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अधःप्रवृत्तसंक्रमके विषयमें भी इन कर्मों के असंख्यात लोकमात्र संक्रमस्थान हैं, इसलिए उनकी भी प्ररूपणा जानकर करनी चाहिए। ६७८४. इसी प्रकार हास्य, रति, भय और जुगुप्साका भी कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपूर्वकरणके श्रावलि प्रविष्ट अन्तिम समयमें अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा इनका जघन्य स्वामित्व हो गया है, इसलिए अधःप्रवृत्तसंक्रमनिमित्तक असंख्यात लोकमात्र संक्रमस्थानोंको वहाँ उत्पन्न करा कर ग्रहण करना चाहिए । इसके बाद अनिवृत्तिकरणमें संकमस्थानों के उत्पन्न

Loading...

Page Navigation
1 ... 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590