Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 503
________________ ४७६ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ परिभमिय दंसणमोहक्खवणं पट्ठविय सम्मामिच्छत्तस्सुवरि मिच्छत्तचरिमफालिं कमेण हिदू द्विदो तस्स पयदत्रिसयचरिमत्रियप्पो हो । संपहि चरिमफालिदव्यमेदं समऊण-बिसमऊणादिकमेण वेछावद्विकालं सव्वमोहारिय गहेयन्त्रं । तं कधमोदारिज दि त्ति भणिदे एगो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमपुढवीए मिच्छत्तदव्त्रमुकस्सं करेमाणो तत्थेयगोवुच्छमेत्तेणूणं करियागंतूण समऊणवेछा बट्टीओ परिभमिय दंसणमोहक्खवणाए अन्भुट्टिय मिच्छत्तचरिमफालिं संछुहमाणो पुव्विल्लेण समाणो होइ । एसो परमाणुत्तरकमेण अप्पणो ऊणीकदमे वायव्वो । एवमेदीए दिसाए बेछावट्टिकालो सन्चो परिहावेयत्रो बाव चरिमवियप्पं पत्तोति । ७८० तत्थ चरिमवियप्पो - जो गुणिदकम्मं सिओ सत्तमाए पुढवीए मिच्छत्तदव्त्रमोघुकरसं करियागंतू दो-तिणिभवरगहणागि तिरिक्खेसु गमिय तदो मणुस्सेसुत्रवजिय गन्भादि अवस्सामंतो मुहुत्तन्भहियाणमुवरि दंसणमोहणीयं खवेमाणो मिच्छत्तचरिमफालिं सम्मामिच्छत्तस्सुवरि संकामेदूण ट्ठिदो सो सव्त्रसंकममस्सिऊण मिच्छत्तस्स सव्वपच्छिम वियप्पसामिओ होइ । खविदकम्मंसियस्स वि कालपरिहाणि कादूणेत्रं चैव परूवणा कायन्त्रा । वरि एयगोवुच्छमेत्तमहियं कादूणागदेण हेट्ठिमसमयद्विदो सरिसो त्ति वत्तव्यं । ओदारिय चरिमफालिदव्वे वड्ढाविदे इमाणि सव्वसंकमविसये अणताणि अन्तिम फालिको क्रमसे संक्रमित कर स्थित है उसके प्रकृत सर्वसंक्रमविषयक अन्तिम विकल्प होता है। अब इस अन्तिम फालिके द्रव्यको एक समय कम, दो समय कम श्रादिके क्रमसे सम्पूर्ण दो छयासठ सागर प्रमाण कालको उतार कर ग्रहण करना चाहिए। उसे कैसे उतारा जाय ऐसा पूछने पर कहते हैं- - एक गुणितकर्माशिक जीव सातवीं पृथिवीं में मिध्यात्व के द्रव्यको उत्कृष्ट करता हुआ वहाँ एक गोपुच्ामात्र न्यून करके और आकर एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर दर्शनमोहनीयकी क्षपणा के लिए उद्यत हो मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिका संक्रम करता हुआ पूर्वके जीवके समान है । यह एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे अपने कम किये गये द्रव्यमात्रको बढ़ावे | इस प्रकार इस दिशासे अन्तिम विकल्पके प्राप्त होने तक समस्त दो छयासठ सागर काल घटाना चाहिए । ७८०. अब वहाँ अन्तिम विकल्पको बतलाते हैं - जो गुणितकर्माशिक जीव सातवीं पृथिवी में मिथ्यात्व के द्रव्यको ओघ उत्कृष्ट करके और आकर दो-तीन भव तिर्यञ्चों में विताकर अनन्तर मनुष्यों में उत्पन्न हो गर्भ से लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष के बाद दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करता हुआ मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको सम्यग्मिथ्यात्व के ऊपर संक्रमण कर स्थित है वह सर्व संक्रमको अपेक्षा मिथ्यात्व के सबसे अन्तिम विकल्पका स्वामी होता है । क्षपितकर्माशिककी भी काकी परिहामि करके इसी प्रकार प्ररूपणा करनी चाहिए। इतनी विशेषता है कि एक गोपुच्छमात्र द्रव्यको अधिक कर आये हुए जीवके साथ अधस्तन समय में स्थित जीव समान होता है। ऐसा कहना चाहिए । उतार कर अन्तिम फालिके द्रव्यके बढ़ाने पर सर्वसंक्रमकी अपेक्षा ये अनन्त

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