Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 501
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो। संकमट्ठाणं च दो वि सरिसाणि । एवं विदियतदियसमयाणियट्टीणं पि सरिसत्तं कादण गेण्हियव्वं । एदेण विधिणागंतूण दुचरिमचरिमसमयाणियट्टीणं पि सरिसभावो जोजेयव्यो । एत्थ सरिसाणमवणयणं कादूण विसरिसाणं चेव गहणे कीरमाणे चरिमसमयाणियट्टिसव्वसंकमट्ठाणाणि दुचरिमादिसमयाणियट्टिसंकमट्ठाणाणमादीदो प्पहुडि असंखेजदिभागं च मोत्तण सेसासेससंकमट्ठाणाणि पुणरुत्ताणि जादाणि ति तेसिमवणयणं कायव्वं । तदो अणियट्टिकरणमस्सिऊण मिच्छत्तस्स संकमट्ठाणपरूवणा समत्ता ।। ६७७६. संपहि मिच्छत्तस्स अण्णो वि गुणसंकमविसयो अत्थि-उवसमसम्माइट्ठिपढमसमयप्पहुडि अंतोमुहुत्तकालं सव्वमेयंताणुवड्डिपरिणामेहि मिच्छत्तपदेसग्गस्स सम्मत्तसम्मामिच्छत्तेसु गुणसंकमेण संकंतिदंसणादो । तत्थ वि गुणसंकमपढमसमयप्पहुडि जाव चरिमसमयो ति संकमट्ठाणपरूवणाए कीरमाणाए अपव्वकरणपरूवणादो ण किंचि णाणत्तमत्थि तदो तेसु सवित्थरं परूविय समत्तेसु गुणसंकममस्सिऊण मिच्छत्तस्स संकमाणपरूवणा समत्ता । तदो एवं सव्वासु परिवाडीसु ति एदस्स सुत्तस्स अत्थपरूवणा समत्ता भवदि। ६७७७. संपहि एदेण सुत्तेण सव्वसंकमाणपरिवाडीसु असंखेजलोगमेत्ताणं चेव संकमट्ठाणाणमुवएसादो एतो अब्भहियोणि संकमट्ठाणाणि ण संभवंति चेवे ति . विप्पडिवण्णस्स सिस्सस्स तहाविहविप्पडिवत्तिणिरायरणमुहेण सव्वसंकममस्सिऊणाणताणं संकमट्ठाणाणं संभवपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णंभी सदृशपना करके ग्रहण करना चाहिए । तथा इसी विधिसे आकर द्विचरम समय और चरम समयके अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी संक्रमस्थानोंका भी सदृशपना लगा लेना चाहिए। यहाँ । सदृश संक्रमस्थानोंका अपनयन करके विसदृशोंका ही ग्रहण करने पर अन्तिम समयके अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी सब संक्रमस्थानोंको और द्विचरम आदि समयके अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी संक्रमस्थानोंके आदिसे लेकर असंख्यातवें भागको छोड़कर शेष सब संक्रमस्थान पुनरुक्त हो गये हैं, इसलिए उनका अपनयन करना चाहिए । इसके बाद अनिवृत्तिकरणका आश्रयकर मिथ्यात्वके संकमस्थानोंकी प्ररूपणा समाप्त हुई। ६७७६. अब मिश्यात्वका अन्य भी गुणसंक्रम विषय है, क्योंकि उपशम सम्यग्दृष्टि जीवके प्रथम समयसे लेकर अन्तमुहूर्त काल तक एकान्तानुवृद्धिरूप परिणामोंके द्वारा मिध्यात्वके प्रदेशोंका सम्यक्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें गुणसंक्रमरूपसे संक्रम देखा जाता है । वहाँ भी गुणसंक्रमके प्रथम समयसे ले कर अन्तिम समय तक संक्रमस्थानोंकी प्ररूपणा करने पर अपूर्वकरणकी प्ररूपणासे कुछ भी नानात्व नहीं है, इसलिए उनके विस्तारके साथ प्ररूपणा करके समाप्त होने पर गुणसंकमका आश्रय कर मिथ्यात्वकी संक्रमस्थानप्ररूपण समाप्त हुई । इसलिए 'इस प्रकार सव परिपाटियोंमें, इस सूत्रकी अर्थप्ररूपणा समाप्त होती है। ६७७७. अब इस सूत्रसे सर्वसंक्रमस्थानोंकी परिपाटियोंमें असंख्यात लोकप्रमाण ही संक्रमस्थानोंका उपदेश होनेसे इनसे अधिक संक्रमस्थान सम्भव नहीं ही हैं इस प्रकार विवादापन्न शिष्यकी उस प्रकारकी विप्रतिपत्तिके निराकरण द्वारा सर्वसंक्रमका आभयकर अनन्त संक्रमस्थान सम्भव हैं इसका कथन करने के लिए आगेका सूत्र अवतीर्ण हुआ है

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