Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० ५८ ]
उत्तरपर्याङपदेससंकमे संक मट्ठा ि
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६७३८. संपहिएदेण सुत्तेण समप्पिदतदियादिपरिवाडीणं परूवणं वत्तइस्सामो । तं जहा -- जहसतकम्मस्सुवरि दोसतकम्मपक्खे पमाणे वदे तदियपरिवाडीए ििमत्तभूदमणं संतकम्मट्ठाणमुप्पजदि । पुणो एवंविहस तकम्ममधापवत्तकरणचरिमसमये जहण्णपरिणामेण सकामेमाणस्स बिदियपरिवाडिजहण्ण संकमद्वाणस्सुवरिमसंखेजलोग भागन्महियं होतॄण तदियसंक्रमट्ठाणपरिवाडीए पढमसंक्रमट्ठाणमुप्पज्जदि । एवं बिदियादिपरिणामेहि मि परिणमिय संकामेमाणाणमवद्विदपक्खेवुत्तरक्रमेण परिणामट्ठाण - ताणि चैत्र संक्रमणाणि समुप्पाएयव्त्राणि । एवमुप्पाइदे तदियपरिवाडीए संकमट्ठाणपरूवणा समत्ता होइ ।
६७३६. संपहि चउत्थपरिवाडीए भण्णमाणाए जहण्गसंतकम्मस्सुवरि तिन्हं संतकम्मपक्खेवाणं व कादुणागदस्स अधापवत्तकरणचरिमसमयम्मि जहण्णपरिणामेण परिणमिय विज्झादसं कमभागहारेण संकामेमाणस्स तदियपरिवाडिजण्णसंकमट्ठा णस्सुवरि विसेसाहियं होदून चउत्थपरिवाडीए पढमं संकमट्ठाणमुप्पजदि । संपहि एदं सतं कम्मं धुवं काढूण विदियादिपरिणामेहि संकामेमाणणाणाजीचे अस्सिऊण असंखेज लोगमेत्तसंकमट्ठाणाणि अवद्विदपक्खेवुत्तरक्रमेण पुव्त्रं व समुप्पाइय गेण्हिदव्वाणि । तदो चउत्थपरिवाडी समता होइ । एवमेगेगसंतकम्मपक्खेवमणंतरानंतर संत कम्मट्ठाणादो अहियं काढूण पंचमादिपरिवाडीओ वि दव्वाओ, जत्थ असंखेज लोगमेत्ताणमेत्थतणसन्त्रपरि
६७३८. अब इस सूत्र के द्वारा विवक्षित की गई तृतीय आदि परिपाटियोंका कथन करते हैं । यथा - जघन्य सत्कर्मके ऊपर दो सत्कर्मप्रक्षेपके प्रमाणों के बढ़ाने पर तीसरी परिपाटीका निमित्तभूत अन्य सत्कर्मस्थान उत्पन्न होता है । पुनः इस प्रकारके सत्कर्म का अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय में जघन्य परिणामके द्वारा संक्रम करनेवाले जीव के दूसरी परिपाटीसे उत्पन्न हुए जघन्य संक्रमस्थानके ऊपर असंख्यात लोक भाग अधिक होकर तृतीय संक्रमस्थान परिपाटीसे प्रथम संक्रमस्थान उत्पन्न होता है । इसी प्रकार द्वितीय आदि परिणामोंके अवलम्बनसे भी परिणमा कर संक्रम करने वाले जीवोंके अवस्थित प्रक्षेप अधिक के क्रमसे परिणामस्थान मात्र ही संक्रमस्थान उत्पन्न करने चाहिए। इस प्रकार उत्पन्न करने पर तीसरी परिपाटी समाप्त होती है ।
९ ७३६. अब चौथी परिपाटीका कथन करने पर जघन्य सत्कर्मके ऊपर तीन सत्कर्मप्रक्षेपोंकी वृद्धि करके प्राप्त हुए कर्मको अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समयमें परिणमा कर विध्यातसंक्रमभागहार के द्वारा संक्रम करनेवाले जीवके तृतीय परिपाटी के जघन्य संक्रमस्थान के ऊपर एक विशेष अधिक होकर चतुर्थ परिपाटीके अनुसार प्रथम संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। अब इस सत्कर्मको ध्रुव करके द्वितीय आदि परिणामोंके आश्रयसे संक्रम करनेवाले नाना जीवोंका अवलम्बन लेकर उत्तरोत्तर अवस्थित प्रक्षेप अधिकके क्रमसे असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान पहले के समान उत्पन्न करके ग्रहण करने चाहिए । तब जाकर चतुर्थ परिपाटो समाप्त होती है। इस प्रकार अनन्तर प्राप्त हुए सत्कर्मस्थानसे एक सत्कर्मप्रक्षेपको अधिक करके पाँचवीं आदि परिपटियाँ भी ले आनी चाहिए ।