Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 481
________________ ४५४ जयधवलासहिदे कसाथपाहुडे . [बंधगो ६ विरलणा रूवाहिया कायया । विक्खंभो पुण परिगामट्ठाणमेत्तो सव्वपरिवाडीसु, तस्सावद्विदसरूवेणु लंभादो । पुणो एदेसि विक्खंभायामाणं संवग्गे कदे एत्थुप्पण्णासेसपरिवाडीणं सव्वसंकमट्ठाणाणि होति । एवं गुणिद०कालपरिहाणीए संकमट्ठाणपरूवणा समत्ता । ६७४६. संपहि तस्सेव संतमस्सिऊण हाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा–एगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण असण्णिपंचिदिएसु देवेसु च कमेणुप्पन्जिय अंतोमुहुत्तेण सव्वविसुद्धो होदूण सम्मत्तप्पायणटुं तिण्णि वि करणाणि कुणमाणो अधापवत्तकरणमणंतगुणोए विसोहीए बोलिय अपुचकरणं पविट्ठो तत्थ गुणसेढिमाढवेदि । तत्थापुवकरणपढमसमए असंखेजलोगमेत्ताणि गुणसेढिणिबंधणपरिणामट्ठाणाणि अस्थि । एवं विदियादिसमएसु वि । तेसु पढमसमयजहण्गपरिणामादो तत्थेवुकस्सपरिणामट्ठाणमणंतगुणं, पढमसमयउकस्सपरिणामट्ठाणादो बिदियसमयजहण्णपरिणामट्ठाणमणंतगुणं, तत्तो तत्वुक्कस्सपरिणामट्ठाणमणंतगुणं, विदियसमयउक्कस्सपरिणामादो तदियसमयजहण्णपरिणामट्ठाणमणंतगुणं, तत्थेवुकस्सपरिणामट्ठाणमणंतगुणं । एवमतोमुहुत्तकालं गच्छदि जाव अपुन्नकरणचरिमसमयो त्ति । एत्युकस्सपरिणामेहि चे गुणसेढिमेत्तो करावेयव्बो । किमट्ठमेवं कराविजदे १ ण, अण्णहा मिच्छत्तदव्वस्स जहण्णभावाणुप्पत्तीदो। चाहिए । परन्तु विष्कम्भ परिणामस्थान प्रमाण है, क्योंकि सब परिपाटयोंमें वह अवस्थित रूपसे उपलब्ध होता है । पुनः इन विष्कम्भों और आयामोंका परस्पर संवर्ग करने पर यहाँ पर उत्पन्न हुई सब परिपाटियोंके सब संक्रमस्थान होते हैं। इस प्रकार गुणितकर्मा शिक जीवके काल परिहाणिका आश्रय लेकर संक्रमस्थानोंकी प्ररूपणा समाप्त हुई। ६७४६. अब उसी जीवके सत्कर्मका आश्रय लेकर स्थानोंकी प्ररूपणा करते हैं । यथाकोई एक जीव क्षपितकर्मा शिकलक्षणसे आकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें और देवोंमें क्रमसे उत्पन्न होकर तथा अन्तमुतमें सर्व विशुद्ध होकर सम्यक्त्वको उत्पन्न करने के लिए तीनों ही करणोंको करता हुआ अधःप्रवृत्तकरणको अनन्तगुणी विशुद्धिके साथ बिताकर अपूर्वकरणमें प्रविष्ट हुआ और वहाँ गुणश्रोणिरचनाका आरम्भ किया। वहाँ अपूर्वकरणके प्रथम समयमें असंख्यात लोकमात्र गुणश्रोणिके कारणभूत परिणामस्थान होते हैं। इसी प्रकार द्वितीयादि समयोंमें भी वे होते हैं। उनमें प्रथम समयके जघन्य परिणामसे वहां उत्कृष्ट परिणामस्थान अनन्तगुणा है। तथा प्रथम समयके उत्कृष्ट परिणामस्थानसे दूसरे समयका जघन्य परिणामस्थान अनन्तगुणा है और उससे वहीं पर उत्कृष्ट परिणामस्थान अनन्तगुणा है। दूसरे समयके उत्कृष्ट परिणामस्थानसे तीसरे समयका जघन्य परिणाम स्थान अनन्तगुणा है। वहीं पर उत्कृष्ट परिणामस्थान अनन्तगुणा है। इस प्रकार अपूर्वकरणका अन्तिम समय प्राप्त होने तक अन्तमहतं काल चला जाता है। यहाँ पर उत्कृष्ट परिणागेके द्वारा ही गुणश्रेणिकी रचना करनी चाहिए। शंका-इस प्रकार किसलिए कराया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योकि ऐसा कराये बिना मिथ्यात्वके द्रव्यका जघन्यपना नहीं उत्पन्न हो सकता।

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