Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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४६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६ विदियसंकमट्ठाणपरिवाडीए चरिमसंकमट्ठाणेण पुव्वुत्तसंतकम्मियादो उपरिमसकमट्ठाणपरिवाडीए दुचरिमसंकमट्ठाणं पुणरुत्त होदण पजवसिदं ति । एत्थ वि गिरुद्धपरिवाडीए चरिमसं कमट्ठाणं हेट्ठा केण वि सरिसण होइ ति तत्तो णियत्तिदण पढमणिवग्गणकंडयतदियसकमट्ठाणपरिवाडीए विदियसकमट्ठाणं घेत्त ण तेण सह पुव्वुत्तसंतकम्मियादो उबरिमतदियसकमट्ठाणपरिवाडीए पढमस कमट्ठाणं सरिस कादण तदो पव्वुत्तकमेण सेसस कमट्ठाणाणं पि पुणरुत्तभावो जोजेयव्यो जाव तत्थतणदुचरिमस कमट्ठाणं हेडिमतदियपरिवाडीए चरिमस कमट्ठाणेण सरिस होदूण परिसमत्तं ति । एत्थ वि चरिमस कमद्वाणं हेट्ठा केण वि सरिसण होदि ति वत्तव्यं ।
७५८. एवमेदेण कमेण पढमणिवग्गणकंडयचउत्थादिपरिवाडीणं पि विदियणिवग्गणकंडयचउत्थादिपरिवाडीहिं पुणरुत्तभावो अणुगंतव्यो जाव दोण्हं णिव्वग्गणकंडयाणं चरिमपरिवाडीओ ति । णवरि सवासि परिवाडीणं पढमस कमट्ठाणाणि ण पुणरुत्तोणि, तेसिं पुणरुत्तभावस्स कारणाणुवलंभादो। विदियणिव्वग्गणकंडयचरिमस कमद्वाणाणि वि अपुणरुत्ताणि णिवग्गणकंडयपमाणं पुण विज्झादभागहारं संतकम्मपक्खेवागमणहेदुभृदमसखेजलोगभागहारं च अण्णोण्णगुणं कादण तत्थ लद्धरूवमेत्तं होइ ति घेत्तव्यं । संपहि एत्थ पढमणिबग्गणकंडयसपरिवाडीणं विदियादिसकमट्ठाणाणि विदियणिव्वग्गणकंडयस कमट्ठाणेहि पुणरुत्ताणि जादाणि त्ति तेसिमवणयणं कायव्वं ।
परिपाटीके अन्तिम संक्रमस्थानके साथ पूर्वोक्त व सत्कर्मकी अपेक्षा उपरिम संक्रमस्थानपरिपाटी का द्विचरम संक्रमस्थान पुनरुक्त होकर अन्तको प्राप्त हुआ है । यहाँ पर भी विवक्षित परिपाटीका अन्तिम संक्रमस्थान नीचे किसीके साथ भी समान नहीं है इसलिए उससे लौटकर प्रथम निर्वर्गणाकाण्डककी तीसरी संक्रमस्थानपरिपाटीके दूसरे संक्रमस्थानको ग्रहण कर उसके साथ सत्कर्मकी अपेक्षा उपरिम तृतीय संक्रमस्थानपरिपाटीका प्रथम संक्रस्थान सदृश करके अनन्तर पूर्वोक्त क्रमसे शेष संक्रमस्थानोंका भी पुनरुक्तपना तब तक लगा लेना चाहिए जब तक अधस्तन तीसरी परिपाटीके अन्तिम संक्रमस्थानके साथ सदृश होकर परिसमाप्त होता है। यहाँ पर भी अन्तिम संक्रमस्थान नीचे किसीके साथ भी समान नहीं है ऐसा कहना चाहिए।
६७५८. इस प्रकार इस क्रमसे प्रथम निर्गणाकाण्डककी चौथी आदि परिपाटियोंका भी दूसरे निर्वाणाकाण्डककी चौथी आदि परिपाटियोंके साथ पुनरुक्तपना तब तक जानना चाहिए जब तक दो निर्वर्गणाकाण्डकोंकी अन्तिम परिपाटी प्राप्त हो । किन्तु इतनी विशेषता है कि सब परिपाटियोंके प्रथम संक्रमस्थान पुनरुक्त नहीं हैं, क्योंकि उनके पुनरुक्तपनेका कारण नहीं उपलब्ध होता। दूसरे निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिम संक्रमस्थान भी अपुनरुक्त हैं । परन्तु निर्वर्गणाकाण्डकका प्रमाण विध्यातभागहारको तथा सत्कर्मके प्रक्षेपोंके आगमनके हेतुभूत असंख्यात लोकमाण भागहारको परस्पर गुणित करके वहाँ जो लब्ध आवे उतना होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अब यहाँ पर प्रथम निर्वर्गणाकाण्डककी सब परिपाटियोंके दूसरे आदि संक्रमस्थान दूसरे निर्वर्गणाकाण्डकके संक्रमस्थानोंके साथ पुनरुक्त हो गये हैं, इसलिए उनको अलग कर देना चाहिए। जिस प्रकार