Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो
परिणामट्ठाण विक्खंभेण पुव्वपरूविदणिव्वग्गणकंडयायामेण च वीयणपदरागारेण चि दट्ठव्वाणि । एवं विज्झादसंकममस्सिऊण मिच्छत्तस्स संक्रमट्ठाणपरूवणा समत्ता ।
§ ७६०. संपहि अपुव्त्रकरणम्मि गुणसंक्रममस्सिऊण मिच्छत्तस्स संक्रमट्ठाणपरूवणं कस्साम । तं जहा — खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण पुव्त्रविहाणेण देवेसुप्पञ्जिय सव्वल हु सम्म पढिलभेण बेछावट्टिसागरोवमाणि परिभमिय दंसणमोहक्खवणाए अन्भुट्टिय अधापवत्तकरणं बोलेदूणापुञ्त्रकरण पढमसमयमहिट्टियस्स तत्थतणजहण्णसंतकम्मं जहण्णपरिणामणिबंधणगुणसं कमभागहारेण संकामेमाणस्स गुणसंकमम स्सिऊण जहण्णसंकमट्ठाणं होई । एदं पुण विज्झादसं कमविसयसबुकस्स संक्रमट्ठाणादो असंखेजगुणं । एत्थ वि जहण्णसंतकम्मस्स संकमपाओग्गाणि असंखेज लोगमेत परिणामट्ठाणाणि अत्थि तेसु सव्वाणि ण घेप्पंति, जहणपरिणामङ्काणादो असंखेजलोगमेत्तद्वाणं गंतूण तत्थेगपरिणामट्ठाणमसंखेज लोगभागुतरपदेस कमस्स कारणभूदमत्थि, तस्स गहणं कायव्यं । एवमवट्ठिदमसंखेजलो गमेत्तद्वाणं गंण एक्केकमपुणरुत्तसंक्रमट्ठाणणिबंधणपरिणामट्ठाणमुवलब्भइ त्ति तहाभूद परिणामट्ठाणेसु सब्बे उच्चिणिण गहिदेसु एदाणि वि असंखेअलोगमेत्ताणि एकमेकदा अनंतगुणाहिय
दण्डका प्रमाणअपकर्षण-उत्कर्षंणभागद्दार, विध्यातभागद्दार, दो छयासठ सागरोंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि, दो असंख्यात लोक और योगगुणकार इन छह भागहारोंको परस्पर गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतना है, क्योंकि संक्रम स्थानोंकी परिपाटियोंका आयाम यहाँ पर पूरी तरह से दण्डरूपसे अवस्थित है । परन्तु अन्तिम निर्वर्गणाकाण्डकके संक्रमस्थान परिणामस्थानके विष्कम्भ और पहले कहे गये निर्वर्गणाकाण्डकके आयामरूप जो बीजनाका प्रतराकार उस रूपसे स्थित है ऐसा यहाँ पर जानना चाहिए । इस प्रकार विध्यातसंक्रमका आश्रय कर मिथ्यात्वके संक्रमस्थानों की प्ररूपणा समाप्त हुई ।
§ ७६०. अब अपूर्वकररण में गुणसंक्रमका आश्रय लेकर मिध्यात्वके संक्रमस्थानोंकी प्ररूपणा करेंगे । यथा - क्षपितकर्मा' शिकलक्षणसे आकर पूर्वोक्त विधिसे देवोंमें उत्पन्न होकर अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त करनेसे दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर तथा दर्शन मोहनीयकी क्षपणा के लिए उद्यत हो अधःप्रवृत्तकरणको बिताकर जो अपूर्वकरणके प्रथम समय में स्थित हो वहाँ जघन्य सत्कर्मको जघन्य परिणाम निमित्तक गुणसंक्रमभागहार के द्वारा संक्रम कर रहा है। उसके गुणसंक्रमका आश्रय कर जधन्य संक्रमस्थान होता है । परन्तु यह संक्रमस्थान विध्यात संक्रमके विषयभूत सर्वोत्कृष्ट संक्रमस्थानसे असंख्यातगुणा होता है। यहाँ पर भी जघन्य सत्कर्मके योग्य जो असंख्यात लोकप्रमाण परिणामस्थान होते हैं उनमेंसे सबको ग्रहण नहीं करते हैं । किन्तु जघन्य परिणामस्थानसे असंख्यात लोकप्रमाण श्रध्वान जाकर वहाँ पर एक परिणाम स्थान असंख्यात लोक भाग अधिक प्रदेशसंक्रमका कारणभूत है, इसलिए उसका प्रण करना चाहिए । इस प्रकार अवस्थित श्रसंख्यात लोकप्रमाण घध्वान जाकर एक एक अपुनरुक्त संक्रमस्थानका कारणभूत परिणामस्थान उपलब्ध होता है, इसलिए उस प्रकारके सभी परिणाम स्थानोंको उठा कर ग्रहण करने पर ये भी परस्पर अनन्तगुणे अधिक क्रमसे वृद्धिरूप होकर असंख्यात लोकप्रमाण