Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 496
________________ गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाणि ४६६ ६७६७. अपुचकरणबिदियादिसमएसु वि एवं चेत्र परूवणा कायव्या जाव अपुल्यकरणचरिमसमओ ति, सम्बत्थ जहावुत्तविक्खंभायामेहिं .संकमट्ठाणपदरुप्पति पडि विसेसाभावादो । संपहि पढमसमयापुरकरणो विदियसमयापुचकरणो च दो वि सरिसाणि कायव्वाणि । तेसिमोवट्टणामुहेण सरिसत्तविहाणं वुच्चदे । तं कधं ? दिवड्डगुणहाणिगुणिदमेगमेइं दियसमयपबद्धं ठविय अंतोमुहुत्तोवट्टिदोकड्डक्कड्डणभागहारपदुप्पण्णवेछावट्टिसागरोवममण्णोण्णब्भत्थरासिणा पढमसमयगुणसंकमभागहारेण च तम्मि ओपट्टिदे पढमसमयापुचकरणस्स जहण्णसंकमट्ठाणं होइ । बिदियसमयापुत्रकरणजहण्णभागहारे वि एसा चे दुवणा कायया । णवरि पुबिल्लगुणसंकमभागहारादो संपहियगुणसंकमभाग. हारो असंखेजगुणहीणो । एवं ठविय एत्थ हेद्विमरासिणा उवरिमरासिम्मि ओवट्टिजमाणे गुणगार-भागहारं सरिसम णिय विदियसमयगुणसंकमभागहारेण पढमसमयगुणसंकमभागहारे भागे हिदे भागलद्ध पलिदोवमस्स असंखे भागमेत्तं होइ ।। ६७६८. पुणो एदेण गुणिदजहण्गदव्यमेत्तं वड्डिदूण द्विदपढमसमयापुव्धजहण्ण. संकमट्ठाणं जहण्गसंतकम्मियविदियसमयापुरकरण जहण्णसंकमट्ठाणं च दो वि सरिसाणि । णवरि एत्थ पढमसमयापुधकरणवड्डिददव्यं संतकम्मपक्वपमाणेण कादूग चढिद ६७६७. अपूर्वकरणके द्वितीयादि समयोंमें भी अपूर्वकरणके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक इसीप्रकार प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि सर्वत्र पूर्वोक्त विष्कम्भ और आयामके द्वारा संक्रमस्थान प्रत्तर की उत्पत्तिके प्रति कोई विशेषता नहीं है । अब प्रथम समयका अपूर्वकरण और दूसरे समयका अपूर्वकरण इन दोनोंको ही सदृश करना चाहिए. इसलिए उनका अपवर्तना द्वारा शहशत्वका विधान करते हैं। शंका-वह कैसे ? . समाधान-डेढ़ गुणहानि गुणित एकेन्द्रियसम्बन्धी एक समयप्रबद्धको स्थापित कर उसमें अन्तमुहूर्तसे भाजित अषकर्षण उत्पकर्षण भागहार द्वारा प्रत्युत्पन्न दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्त राशिका और प्रथम समयसम्बन्धी गुणसंक्रम भागहारका भाग देने पर प्रथम समयसम्बन्धी अपूर्वकरणका जघन्य संक्रमस्थान होता है। द्वितीय समयसम्बन्धी अपूर्वकरणक जघन्य भागहारमें भी यही स्थापना करनी चाहिए। इतनी विशेषता है कि पूर्वके गुणसंक्रम भागहारसे साम्प्रतिक गुणसंक्रमभागहार असंख्यातगुणा हीन है। इस प्रकार स्थापित करके यहाँ पर अधस्तन राशिद्वारा उपरिम राशिके भाजित करनेपर गुणकार और भागहारको एक समान निकाल कर द्वितीय समयके गुणसंक्रम भागहारका प्रथम समयके गुणसंक्रम भागहारमें भाग देने पर भाग लब्ध पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। ६७६८. पुनः इसके द्वारा गुणित जघन्य द्रव्यमात्रको बढ़ाकर स्थित प्रथम समयसम्बन्धी अपूर्वकरणका जघन्य संक्रमस्थान और जवन्य सत्कर्मवालेका द्वितीय समयसम्बन्धी अपूर्वकरणका जघन्य संक्रमस्थान ये दोनों ही समान हैं। इतनी विशेषता है कि यहाँ पर प्रथम समयसम्बन्धी

Loading...

Page Navigation
1 ... 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590