Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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४७० . जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ द्घाणपत्रणा कायवा । एत्तो उवरिमसनसंकमट्ठाणाणि पढमसमयापुव्वपडिबद्धाणि विदियसमथापव्यकरणसंकमट्ठाणेहिं जहाकम सरिसाणि होदण गच्छंति जाव विदियसमयापधकरणास चरिमपरिवाडोदो हेट्ठा पुचिल्लचडिदद्धाणमेत्तमोसरिदण द्विदसंकमटाणपरिवाडी त्ति । एत्तो उपरिमाणि विदियसमयापुरकरणसंकमट्ठाणाणि पढमसमयापञ्चकरणसंकमट्ठाणेहिं ण पुणरुत्ताणि । कुदो ? पढमसमयापुवकरणसंकमट्ठाणाणमेत्थेव णिद्विदत्तादो।
७६६. संपहि पढमसमयापुरकरणो विदियसमयापुत्रकरणो च तदियसमयापत्रकरणेण सह सरिससंकमपज्जाया अस्थि तेसिमोवट्टणाविहाणं पुव्वं व कादूण सरिसभावो दट्टयो । णारि पढमसमयापुरकरणो जेणद्धाणेण तदियसमयापुचकरणेण सरिसो होदि तत्तो बिदियसमयापुव्यकरणस्स चढिदद्धाणमसंखेजगुणहीणं होइ । अणुकट्टिपञ्जवसाणं पि ण दोण्हमकमेण होदि ति दडव्वं । एत्थ कारणं सुगमं ।।
६७७०. एवमेदेण बीजपदेण उपरि वि सरिसत्तं कादण णेदव्वं जाव अपव्वकरणचरिमसमयो ति । एवं कादण जोइदे विदियसमयापुरकरणमादि कादण जाव दुचरिमसमयापुत्रकरणो ति ताव समुप्पण्णासेससंकमट्ठाणाणि पुणरुताणि जादाणि । किं कारणमिदि चे ? पढमसमयापुब्धकरणसंकमट्ठाणेहिं चरिमसमयापुब्धसंकमट्ठाणेहिं य
अपूर्वकरणके बढ़े हुए द्रव्यको सत्कर्मप्रक्षेपके प्रमाणसे करके जितने स्थान आगे गये हैं उनकी प्ररूपणा करनी चाहिए। इससे आगे प्रथम समयसम्बन्धी अपूर्वकरणसे सम्बन्ध रखनेवाले उपरिम सर्व संक्रमस्थान द्वितीय समयसम्बन्धी अपूर्वकरणके संक्रमस्थानोंके साथ यथाक्रम सदृश होकर द्वितीय समयसम्बन्धी अपूर्वकरणकी अन्तिम परिपाटीसे नीचे पूर्वके चढ़े हुए अध्वानमात्र सरक कर स्थित संक्रमस्थान परिपाटीके प्राप्त होने तक जाते हैं। यहाँ से आगेके द्वितीय समयसम्बन्धी अपूर्वकरणके संक्रमस्थान प्रथम समयसम्बन्धी अपूर्वकरणके संक्रमस्थानोंसे पुनरुक्त नहीं है, क्योंकि प्रथम समयसम्बन्धी अपूर्वकरणके संक्रमस्थानोंका इन्हींमें निर्देश किया है।
७६६. अब प्रथम समयका अपूर्वकरण और दूसरे समयका अपूर्वकरण तीसरे समयके अपूर्वकरणके साथ सदृश संक्रम पर्यायबाला है, इसलिए उनके अपवर्तना विधानको पहलेके समान करके सहशभाव जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि प्रथम समयको अपूर्वकरण जिस अध्वानसे तृतीय समयके अपूर्वकरणके साथ सहश होता है उससे द्वितीय समयके अपूर्वकरणका चढ़ा हुआ अध्वान असंख्यातगुणा हीन है। अनुकृष्टिका अन्त भी दोनोंका युगपत् नहीं होता ऐसा जानना चाहिए । यहाँ पर कारण सुगम है ।
६७७०. इस प्रकार इस बीजपेद के अनुसार ऊपर भी सदृशता करके अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। ऐसा करके योजित करने पर द्वितीय समयके अपूर्वकरणसे लेकर द्विचरम समयके अपूर्वकरणके प्राप्त होने तक उत्पन्न हुए समस्त संक्रमस्थान पुनरुक्त हो जाते हैं।
शंका-क्या कारण है ?