Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो
अवापत करणो होहूण द्विदो एसो पुव्विल्लेण सह सरिसो । संपहि इमं घेत्तूण इमे णीयदव्यमि जावदिया संतकम्मपक्खेवा संभवंति तावदियमेत्तसंक मट्ठाणपरिवाडीओ समुप्पादव्त्राओ । एत्थ संतकम्मपक्खेवबंधणविहाण जाणिय कायव्वं । एवमेदेण विहाणेण संधीओ जाणिऊण ओदारेदव्वं जाव बेछात्रट्टीणमादीए आवलिय वेदगसम्मादिट्ठति । तत्तो हेट्ठा ओदारिजमाणे मिच्छत्तस्स गोवुच्छदव्त्रं णत्थि त्ति विज्झाद संकमदन्यमेतेणणं करियागंतूण हेट्ठिमानंतरसमयम्मि ट्ठिदेण पुव्विल्लं सरिसं कादूण तदूणीकयदत्रं पुणो वि वड्डाविय ओदारेयव्त्रं जाव उवसमसम्मत्तद्धाए संखेज्जे भागे ओयरिय विज्झादं पदिदपढमसमयं पत्तो ति । संपहि एत्तो हेट्ठा ओदारेदु ण सक्कदे । किं कारणं ? एत्थेव विज्झादसंकमो समत्तो। एत्तो हेट्ठा गुणसंकमविसयो तेोदस्स सरिसकरणोवायाभावाद । एवं गुणिदकम्मं सिय संत मस्सिऊण द्वाणपरूवणा गया ।
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९ ७४६. संपहि खविदकम्मंसियस्स कालपरिहाणिं काढूणोदा रिजमाणे गुणिदकम्मंयिभंगो चैत्र । वरि जत्थ ऊणं कदं तत्थेगेगगोवुच्छदव्वमेत्तमेगसमयमोकडणाए विणासिददव्यमेत्तं च विज्झादसंकमदव्त्रेण सह उवरिमसमयदव्वम्मि वड्डाविय हेडिमसम दव्त्रेण सरिसं काढूण समऊणादिकमेण संघीओ जाणिऊण ओदारेदव्त्रं जाव अंतोहुतूपढमछाडि सव्वमोइण्णो त्ति । पुणो तत्थ ट्रुविय चत्तारि पुरिसे अस्सिऊण वडावेयन्त्र
प्रवृत्त करण होकर स्थित हुआ वह पहले के जीवके समान है। अब इसे ग्रहण कर इसके द्वारा कम किये गये द्रव्यमें जितने सत्कर्मप्रक्षेप सम्भव हैं उतनी संक्रमस्थान परिपाटियाँ उत्पन्न करनी चाहिए । यहाँ पर सत्कर्मप्रक्षेपकी वृद्धि के विधानको जानकर करना चाहिए। इस प्रकार इस विधि से सन्धियोंको जानकर दो छयासठ सागरके प्रारम्भ में वेदकसम्यग्दृष्टिके एक श्रावलिकाल के होनेतक उतारना चाहिए। उससे नीचे उतारने पर मिथ्यात्वका गो ुच्छद्रव्य नहीं है इसलिए विध्यातसंक्रमप्रमाण द्रव्यसे न्यून कर आकर अनन्तर अधस्तन समय में स्थित हुए जीवके द्वारा पहले द्रव्यको समान कर उस कम किये गये द्रव्यको फिर भी बढ़ा कर उपशमसम्यक्त्वके कालके संख्यात बहुभाग उतारकर विध्यातसंक्रमके प्रथम समय के प्राप्त होनेतक उतारना चाहिए। अब इससे नीचे उतारना शक्य नहीं है, क्योंकि यहीं पर विध्यातसंक्रम समाप्त हो गया है। इससे नीचे गुणसंक्रमका विषय है, इसलिए इसके सदृश करनेका कोई उपाय नहीं है। इस प्रकार गुणित कर्माशिक जीवके सत्कर्मका आश्रय कर स्थानप्ररूपणा समाप्त हुई ।
९७४६. अब क्षपितकर्माशिक जीवके कालपरिहानिको करके उतारने पर गुणित कर्माशिक के समान ही भंग होता है । किन्तु इतनी विशेषता है कि जहाँ पर एक कम किया गया है वहाँपर एक एक गो पुच्छाप्रमाण द्रव्यको और एक समय में अपकर्षणके द्वारा विनाशको प्राप्त हुए द्रव्यको विध्यातसंक्रमके द्रव्यके साथ अगले समयके द्रव्यमें बढ़ाकर अधस्तन समय में स्थित द्रव्य के साथ समान करके एक समय न्यून आदिके क्रमसे सन्धियोंको जानकर अन्तर्मुहूर्त कम प्रथम छयासठ सागर के सब द्रव्यके उतरने तक उतारना चाहिए । पुनः वहाँ पर स्थापित कर चार पुरुषोंका आश्रय कर गुणितकर्माशिक जीवके अधः प्रवृत्तकरणके अन्तिम समयके योग्य उत्कृष्ट संक्रम द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाना