Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा०५८] ___ उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाणि
४४६ तत्थेवुक्कस्सदव्यमिच्छामो त्ति जहण्णदबस्स ओकडकड्डणभागहारगुणिदजोगगुणगारे गुणगारभावेण ठविदे गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण बेछावहिसागरोवमाणि परिभमिय दंसणमोहक्खवणाए अब्भुट्ठिय अधापवत्तकरणचरिमसमए वट्टमाणस्स पयदुकस्सदव्यमागच्छदि । एवमेदाणि दोण्णि दव्याणि ठविय एत्थ जहण्णदव्वेणुक्कस्सदव्ये ओवट्टिदे जोगगुगगारपदुप्पण्णोकड्डुक्कड्डणभागहारो आगच्छदि । पुणो एदेण भागलद्धेण जहण्णदधावणयणटुं रूवणीकएण जहण्गदव्ये गुणिदे जहण्णव्वे उक्कस्सदव्वादो सोहिदे सुद्धसेसदव्यमागच्छदि । संपहि एवं दव्यं संतकम्मपक्खेवपमाणेण कस्सामो तं कधमेदस्स हेट्ठा विज्झादमागहारं वेअसंखेजलोगे जोगगुणगारोकड्डक्कड्डणभागहाराणं रूवणण्णोण्णगुणिदरासिं च संवग्गिय विरलेऊण सुद्धसेसदव्वे समखंड कादूण दिण्णे एक्केकस्स रूवस संतकम्मपक्खेवपमाणं पावइ । संपहि एदिस्से विरलणाए जत्तियाणि स्वाणि तत्तियाओ चे एत्थुप्पण्णसंकमट्ठाणपरिवाडीओ हवंति, संतकम्मपक्खेवं पडि एक किस्से चे। संकमट्ठागारिवाडीए समुप्पाइदत्तादो । एदिस्से च विरलणाए आयामो असंखेजलोगमेतो ति णत्थि संदेहो, पुव्वुतपंचभागहाराणमण्गोण्णसंवग्गेणुप्पण्णरासिस्स तप्पमाणत्ताविरोहादो । णारि जहण्णसंतकम्मणिबंधणपढमपरिवाडिसंगहणहमेसा विरलणा रूवाहिया कायया । पुणो एदेणायामेण परिणामट्ठाणमेत्तविक्खंभे गुगिदे सव्यासि
पर गुणितकमा शिकलक्षणसे आकर दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर दर्शनमोहनीयकी क्षपणा के लिए उद्यत हो अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें विद्यमान जीवके प्रकृत उत्कृष्ट द्रव्य प्राप्त होता है । इस प्रकार इन दोनों द्रव्योंको स्थापित कर यहाँ पर जघन्य द्रव्यका उत्कृष्ट द्रव्यमें भाग देने पर योगगुणकारस गुणित अपकर्षण-उत्कर्षणभागहार आता है। पुनः जघन्य द्रव्यके घटाने के लिए इस भागलब्धको एक कम करके उससे जघन्य द्रव्यके गुणित करने पर तथा जघन्य द्रव्यको उत्कृष्ट द्रव्योंमेंसे घटाने पर शुद्ध शष द्रव्य आता है। अब इस द्रव्यको सत्कर्म प्रक्षेपके प्रमाणसे करते हैं।
शंका-वह कैसे ?
समाधान-इसके नीचे विध्यात भागहारको तथा दो असंख्यात लोक और योगगुणकार तथा अपकर्षण उत्कर्षणभागहारकी एक कम परस्पर गुणित राशिको परस्पर संवर्गित कर और विरलन कर उस विरलित राशिके प्रत्येक एक पर शुद्ध शेष द्रव्यको समान खण्ड कर देने पर एक एक रूपके प्रति सत्कर्म प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है। यहाँ पर इस विरलनके जितने रूप हैं उतनी ही यहाँ पर उत्पन्न हुई संक्रम परिपाटियाँ होती हैं, क्योंकि सत्कर्म प्रक्षेपके प्रति नियमसे एक एक संक्रमस्थान परिपाटी उत्पन्न की गई है। और इस विरलनका आयाम असंख्यात लोकप्रमाण है इसमें सन्देह नहीं, क्योंकि पूर्वोक्त पाँच भागहारोंके परस्पर गुणा करनेसे उत्पन्न हुई राशि तत्प्रमाण होने में कोई विरोध नहीं आता । किन्तु इतनी विशेषता है कि जवन्य सत्कर्मनिमित्तक प्रथम परिपाटीका संग्रह करने के लिए यह विरलन एक अधिक करना चाहिए । पुनः इस आयामसे परिणामस्थान मात्र
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