Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाि
दिगुणहाणी ओट्टिय विरलिऊणेयगोबुच्छदव्त्रं समखंड करिय दिपणे तत्थेगेगरूवस्स एगेगसंतकम् मपक्वपमाणं पावइ । पुणो एत्थेगरूत्रधरिदं घेत्तूण पुव्विल्लसंतकम्मस्सुवरि पक्खित्ते अण्णमपुणरुत्तसंकमणणिबंधणं संतकम्मट्ठाणमुप्पजदि । एदमस्सिदूण पुष्पणसंक्रमणाणमुवरि परिणाम णमेत विक्खंभेणा संखेञ्ज लोग भागबड्डीए अण्णा अपुणरुत्तसंतकम्मट्ठाण परिवाडी समुप्पाएयन्त्रा । एवमुप्पण्णुप्पण्णसंत कम्मस्सुवरि एगेगसंतकम्मपक्खेवं पक्खित्रिय दव्वं जाव विरलणरासिमेत्ता संतकम्मपक्खेवा पट्ठा सि । एवं पविट्ठे पुप्पण्णसंकमट्ठाणाणमुवरि विरलणरा सिमेत्तीओ चेत्र अपुणरुत्तसंकमट्ठाणपरिवाडीओ समुप्पण्णाओ । एवं वड्डाविदे समयूणवे छावट्ठि चरिमसमय अधापवत्तदव्यं पि उकस्सं जादं । णवरि एयसमयमोकड्डिऊण विणा सिददव्यमेत्तमेगसमय विज्झाद संक्रमदव्यमेत्तं च एत्थ अधियमत्थि । तं वि संतकम्मपक्खेवपमाणं काढूण जाणिय वढावेयव्वं । सो विसेस वरिव सव्वत्थ वत्तव्यो ।
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९ ७४३. पुणो अण्णेगो गुणिदकम्मंसिओ सतमपुढवीए मिच्छत्तदव्त्रमुकस्सं करेमाणो तत्थेयगोवुच्छदव्यमेत्तेणणं काढूण तत्तो णिस्सरिय पुव्त्रविहाणेण सव्वल हु सम्मत्तमुप्पाइय दुसमऊणवेछावडीओ परिभमिय दंसणमोहक्खवणाए अन्भुट्टिय चरिम. समयअधापत्तकरणो होढूण ट्ठिदो । एसो पुव्विल्लेण सरिसो । पुणो तप्परिहारेण इमं घेण पुचविहारोण अपणो ऊणीकयदव्यमेत्तमेत्थ वड्डाविय गेण्हिदव्त्रं । एदेण विधिणा
कर जो लब्ध आवे उसे विरलन कर उस पर एक गोपुच्छामात्र द्रव्यको समान खंड कर देने पर वहाँ एक एक विरलन अंक के प्रति एक एक सत्कर्म प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः यहाँ पर एक विरलन कके प्रति प्राप्त द्रव्यको ग्रहण कर पहले के सत्कर्मके ऊपर प्रक्षिप्त करने पर अन्य अपुनरुक्त संक्रमस्थानका कारणभूत सत्कर्मस्थान उत्पन्न होता है । अब इसका आश्रय कर पूर्व में उत्पन्न हुए, संक्रमस्थानों के ऊपर परिणामस्थानमात्र विष्कम्भ के साथ असंख्यात लोक भागवृद्धिसे अन्य अपुनरुक्त सत्कर्मस्थान परिपाटी उत्पन्न करनी चाहिए। इस प्रकार पुनः उत्पन्न हुए सत्कर्मके ऊपर एक एक सत्कर्म प्रक्षेपको प्रक्षिप्त कर विरलन राशिके बराबर सत्कर्मप्रक्षेपों के प्रविष्ट होने तक ले जाना चाहिए । इस प्रकार प्रविष्ट होने पर पूर्व में उत्पन्न हुए संक्रमस्थानोंके ऊपर विरलन राशि प्रमाण ही अपुनरुक्त संक्रमस्थान परिपाटियाँ उत्पन्न हुई हैं। इस प्रकार बढ़ाने पर एक समय कम दो छयासठ सागर कालके अन्तिम समयमें अधःप्रवृत्त द्रव्य भी उत्कृष्ट हो गया । किन्तु इतनी विशेषता है कि एक समय में अपकर्षित होकर विनाशको प्राप्त होनेवाला द्रव्य तथा एक समय में विध्यातसंक्रमद्रव्य यहाँ पर अधिक हैं, इसलिए उसे भी सत्कर्मप्रक्षेपप्रमाण करके जानकर बढ़ाना चाहिए । यह विशेष आगे भी सर्वत्र कहना चाहिए ।
९ ७४३. पुनः सातवीं पृथिवी में मिथ्यात्वके द्रव्यको उत्कृष्ट करनेवाला अन्य एक गुणित कर्माशिक जो जीव उसमें एक गोपुच्छामात्र द्रव्यसे न्यून करके और वहाँ से निकल कर पूर्वोक्त विधिसे अतिशीघ्र सम्यक्त्वको उत्पन्न कर दो समय कम दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर दर्शनमोहनीयकी क्षपणा के लिए उद्यत हो अन्तिम समयवर्ती अधःप्रवृत्तकरण होकर स्थित है वह पहले जीवके सदृश है । पुनः उसके परिहार द्वारा इसे ग्रहण कर पूर्व विधिसे अपने कम किय