Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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४४८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ वधगो ६ वाडीगमच्छिमारिवाडी परिणामट्ठाणमेत्तायामा समुप्पण्णा ति । तत्थ चरिमवियपं वत्तइस्सामो । तं जहा- ७४०. एगो गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सत्तमपुढवीए उपजिय तत्य मिच्छत्तदव्यमुक्कस्सं कादूण तत्तो णिप्पिदिय पुणो दो-तिण्णितिरिक्खभवग्गहणाणि अंतोमुहुत्तकालपडिवद्धोणि समणुपालिय तदो समयाविरोहेण देवेसुप्वन्जिय सव्वल सव्वाहि पजत्तीहि पजतयदो सम्मत्तं घेत्तण बेछावहिसागरोवमाणि परिममिय तदवसाणे मणुसेसुवधज्जिय गम्भादिअवस्साणमंतोमुहत्तब्महियाणमुवरि दसणमोहक्खवणाए अब्भुट्ठिय अधापवत्तकरणचरिमसमए जाणाजीवसंबंधिणाणापरिणामणिबंधणचरिमपरिवाडीए दुचरिमादिसम्ववियप्पे उक्कस्सपरिणामेण संकामेमाणो एत्थतणचरिमवियप्पसामियो होइ । एवमुप्पण्णासेससंकमट्ठाणपरिवाडीओ असंखेजलोगमेतीओ होति, जहण्णसंतकम्ममुक्कस्ससंतकम्मादो सोहिय सुद्धसेसम्मि संतकम्मपक्खेवपमाणेण कीरमाणे असंखेजलोगमेत्ताणं संतकम्मपक्खेवाणमुवलंभादो । तं जहा
६७४१. जहण्गदबमिच्छिय दिवगुणहाणिगुणिदमेगमेई दियसमयपबद्धं उविय अंतोमुहत्तोवट्टिदोकड कड्डणभागहारपदुप्पण्णेण बेछावद्विसागरो०णाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासिणा तम्मि ओवट्टिदे अधापवत्तकरणचरिमसमयजहण्णदव्वं होइ । पुणो
अब जहाँ पर असंख्यात लोकप्रमाण यहाँ सम्बन्धी सब परिपाटियोंकी अन्तिम परिपाटी परिणाम- . स्थान मात्र आयामवाली उत्पन्न होती है। वहाँ पर अन्तिम भेदको बतलाते हैं । यथा
६७४०. गुणितकर्मा शिकलक्षणसे आकर कोई एक जीव सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न हो, वहाँ मिथ्यात्वके द्रव्यको उत्कृष्ट कर फिर वहाँसे निकल कर पुनः अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर तियश्चोंके दो-तीन भव ग्रहण कर अनन्तर जिससे शास्त्रमें विरोध न आवे इस विधिसे देवोंमें उत्पन्न हो और अतिशीघ्र सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो तथा सम्यक्त्वको ग्रहण कर दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर उसके अन्तमें मनुष्योंमें उत्पन्न हो गर्भसे लेकर आठ वर्ष और अन्तमुहर्तके बाद दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हो अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें नाना जीवोंके सम्बन्धसे नाना परिणामनिमित्तक अन्तिम परिपाटीके द्विचरम आदि सब विकल्पोंको विता कर उत्कृष्ट परिणामसे संक्रमण करनेवाला जीव यहाँके अन्तिम विकस्पका स्वामी होता है। इस प्रकार उत्सन्न हुई समस्त संक्रमस्थानोंकी परिपाटिया असंख्यात लोकप्रमाण होती है, क्योंकि जघन्य सत्कर्मको उत्कृष्ट सत्कर्ममेंसे घटा कर जो शेष बचे उसे सत्कर्मप्रक्षेपके प्रमाणसे करनेपर असंख्यात लोकप्रमाण सत्कर्मप्रक्षेप उपलब्ध होते हैं । यथा
. ७४१. जघन्य द्रव्यकी इच्छासे डेढ़ गुणहानिगुणित समयप्रबद्धको स्थापित कर मन्तमुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे उत्पन्न दो छयासठ सागर कालके भीतर प्राप्त नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्यान्याभ्यस्त राशिसे उसके भाजित करने पर अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें जघन्य द्रव्य प्राप्त होता है। पुनः वहीं पर उत्कृष्ट द्रव्य लाना चाहते हैं इसलिए जघन्य द्रव्यके अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे गुणित योगमुणकारके गुणकारभावसे स्थापित करने