Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 473
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ संपहि एवं विहपक्खेवुत्तरजहण्णसतकम्ममवलंबिय अधापवत्तकरणचरिमसमयजहण्णादिपरिणामट्ठाणेसु जहाकर्म परिणदणाणाकालसंबंधिणाणाजीवस कमवसेण विदियसकमद्वाणपरिवाडिपरूपणा पढमपरिवाडिभंगेणाणुगंतव्वा । णरि पढमपरिवाडिजहण्णसं कमट्ठाणादो असंखेजलोगभागुत्तरं होदूण तत्थतणविदियसकमट्ठाणादो विसेसहीणमसंखेजलोगपडिभागेण संपहियजहण्णस कमट्ठाणमुप्पजदि ति घेत्तव्वं । एवं विदियादो बिदियं तदियादो तदियमिच्चादिकमेण सव्वत्थ णेदव्वं । सपहि एदस्सेवत्थस्स फुडीकरणद्वमुत्तरसुत्तं भणइ * एत्य वि असंखेजा लोगा संकमट्ठाणाणि। ६७३७. जहा जहण्णए संतकम्मट्ठाणे असंखेजलोगमेताणि संकमट्ठाणाणि परूविदाणि एवमेत्थ वि पक्खेवुतरजहण्णसंतकम्मट्ठाणे तत्तियमेत्ताणि चेव संकमट्ठाणाणि णिरवसेसमणुगंतव्याणि, विसेसाभावादो ति मणिदं होइ । एवं विदियपरिवाडीए सकमद्वाणषरूपणा समता । संपहि एदीए दिसाए तदियादिपरिवाडीणं पि परूषणा कायदा ति समप्पणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * एवं सव्वासु परिवाडोसु। एक भाग अधिक द्वितीय सत्कर्मस्थान उत्पन्न होता है यह सिद्ध हुआ । यहाँ पर इस प्रकार एक प्रक्षेप अधिक जघन्य सत्कर्मका अवलम्बन लेकर अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयसम्बन्धी जघन्य आदि परिणामस्थानोंमें क्रमसे परिणत हुए नाना कालसम्बन्धी नाना जीवोंके संक्रमके वशसे द्वितीय संक्रमस्थानपरिपाटीको प्ररूरणा प्रथम परिपाटीके समान जान लेना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रथम परिपाटीके जघन्य संक्रमस्थानसे असंख्यात लोकसे भाजित एक भाग अधिक होकर वहाँ सम्बन्धी द्वितीय संक्रमस्थानसे विशेष हीन असंख्यात भागरूपसे साम्प्रतिक जघन्य संक्रमस्थान उत्पन्न होता है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार दूसरेसे दूसरा और तीसरेसे तीसरा इत्यादि क्रमसे सर्वत्र जानना चाहिए। अब इसी अर्थको स्पष्ट करने के लिए भागे का सूत्र कहते हैं * यहाँ पर भो असख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान होते हैं । ६७३७. जिस प्रकार जघन्य सत्कर्मस्थानमें असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान कहे हैं उसी प्रकार यहाँ पर भी एक प्रक्षेत्र अधिक जयन्य सत्कर्मस्थान में उतने ही संक्रमस्थान पूरे जानने चाहिए, क्योंकि यहाँ पर अन्य कोई विशस्ता नहीं है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । इस प्रकार दूसरी परिपाटीके अनुसार संक्रमस्थानोंको प्ररूपणा समाप्त हुई। अब इसी पद्धतिसे तृतोयादि परिपाटियों की भी प्ररूपणा करनी चाहिए इस प्रकारके कथनकी मुख्यता करके प्रागेका सूत्र कहते हैं * इसी प्रकार सब परिपाटियों में जानना चाहिए ।

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