Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेससंकमे पदणिक्खेवो
४१५
सोहिदे सुद्धसमेत्तमेत्थ सामित्तविसकयदव्यं होइ । एत्थ चोदगो भणदि -होउ णाम सिमितं चेत्र, तत्थ पयारंतरासंभवादो | डिसामित्तं पुण एइ दिएसु सत्थाणे चैत्र पडिवक्खधगद्धं गालिय सगबंधपारंभादो आवलियादीदस्स कायव्वं, तत्थ संकमपाओग्गभावेण दुकमाणतप्पोओग्गजहण्णेइ दियसमयपबद्धस्स पुव्विलसा मित्तविसय पंचिदियसमयबद्धादो असंखेजगुणहीणस्स गहणे सुट्ठ जहण्णभावोववत्तोदो त्ति ? ण एस दोसो, परिणामं विसेसमस्सिऊणेत्थतणसुद्ध सेससंकमदव्त्रस्स थोवत्तन्भुवगमादो । तं कथं १ एइ दियसंकिलेसादो पंचिदियस्स संकिलेसो अनंतगुणो होइ, तेण सामित्तसमयोदो हेट्ठा समयाहियावलिमेत्तमोसरिदूण जहण्णजोगेण बंधमाणावस्थाए एइ दिएण पडिच्छिखमाणदव्वादो पंचिदिएण पडिच्छिमाणदव्वं थोवयरं चेत्र होदि ति तदनुसारेण सुद्धसेवदिव्यं पि तत्थेव थोत्रयरं होई । ण च णत्रकबंधस्सेत्थ पहाणभावो अत्थि, तत्तो असंखेजगुणं पडिच्छिजमाणदव्वं मोत्तृण तस्स पहाणत्ताणुवलंभोदो | अहवा जहण्णहाणिविसयाचेव जणवडी सुत्तारेणेत्थ विवक्खिया त्तिण किं चि विरुज्झदे ।
* अरदि-सोगाणमेवं चेव । एवरि पुव्वं हस्स-रदीओ बंधावेयव्वाओ । उतना यहाँ पर स्वामित्वरूपसे विषय किया गया द्रव्य होता है ।
शंका—यहाँ पर शंकाकार कहना है- हानिका स्वामित्व रहा आवे, क्योंकि वहाँ पर दूसरा । प्रकार सम्भव नहीं है । वृद्धिका स्वामित्व तो एकेन्द्रियोंके स्वस्थानमें ही ऐसे जीवके करना चाहिए जिसने प्रतिपक्ष बन्धककालको गलाकर अपने बन्धके प्रारम्भ होनेसे लेकर एक श्रावलिकाल बिता दिया है, क्योंकि वहाँ पर संक्रमके योग्यरूपसे प्राप्त होनेवाला एकेन्द्रिय सम्बन्धी तत्प्रायोग्य जघन्य समयबद्ध पूर्व में कहे गये स्वामित्व विषयक पञ्चेन्द्रिय सम्बन्धी समयप्रबद्धसे असंख्यातगुणा ही होता है, इसलिए उसके ग्रहण करने पर उसका अच्छी तरह जघन्यपना बन जाता है ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि परिणाम विशेषका आश्रयकर यहाँ का शुद्ध शेष बचा हुआ संक्रमद्रव्य स्तोक है ऐसा स्वीकार किया गया है । —वह कैसे ?
शंका
समाधान —क्योंकि एकेन्द्रियजीव के संक्लेशसे पञ्चेन्द्रियजीवका संक्लेश अनन्तगुणा होता है, इसलिए स्वामित्व समय से पूर्व एक समय अधिक एक आवलि पीछे सरक कर जघन्य थोके द्वारा बन्ध होने की अवस्था में एकेन्द्रिय जीवके द्वारा प्रतिग्राह्यमान द्रव्यसे पञ्चेन्द्रिय जीवके द्वारा प्रतिग्राह्यमान द्रव्य स्तोकतर ही होता है अतएव उसके अनुसार शुद्ध शेष वृद्धिरूप द्रव्य भी उस पञ्चेन्द्रियजीवके स्तोकतर होता है और नवकबन्धकी यहाँ पर प्रधानता नहीं है, क्योंकि उससे असंख्यातगुणे प्रतिग्राह्यमान द्रव्यको छोड़कर उसकी प्रधानता नहीं उपलब्ध होती । अथवा सूत्रकारने जघन्य हानिविषयक ही जघन्य वृद्धि यहाँ पर विवक्षित की है इसलिए कुछ भी विरोध नहीं है ।
* अरति और शोक की जघन्य वृद्धि आदिका स्वामित्व इसी प्रकार है । किन्तु इतनी विशेषता है कि पहले हास्य और रतिका बन्ध करावे । तदनन्तर एक आवलि