Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
४३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ भावादो । णरि तेसिं विसयविभागो एवमणुगंतव्यो । तं जहा–असंखेजभागवडि-हाणि अट्ठाणाणि सत्थाणे सव्वत्थ चे पयदकम्माणं होंति, तेसिं तत्थ पडिबधामावादो। अणंताणुबंधीणमसंखेजगुणवड्डी विसंजोयणाए अपुवाणियट्टिकरणेसु होइ विज्झादसंकमादो मिच्छत्तं पडिवण्णपढमसमए वि असंखेजगुणवढी लन्भदे, तेसिं चेवासंखेजगुणहाणी अधापवत्तसंकमादो सम्मत्तं घेत्तण विज्झादसंक्रमे पदिदपढमसमये होइ, तत्थासंखेजगुणहाणि मोत्तण पयारंतराणुवलंभादो। अवत्तव्यसंकमो वि तेर्सि विसंजोयणापुव्वसंजोगादो आवलियादीदस्स पढमसमये होदि ति वत्तव्वं । अट्ठकसाय-भय-दुगुछाणं चरित्तमोहक्खवणाए कसायोवसामणाए च गुणसंकमण संकामेमाणस्स असंखेजगुणवडी होइ । तेसिं
चेव उवसमसेढीए गुणसंकमादो कालं कादण देवेसुप्पण्णपढमसमये अधापवत्तसंकमेणासंखेजगुणहाणी होइ । अण्णं च अट्ठकसायाणमधापवत्तसंकमादो संजमं संजमासंजमं वा पडिवजिय विज्झादसंकमे पदिदस्स पढमसमये असंखेजगुणहाणी होइ । एदेसि चेव विज्झादसंकमादो हेडिमगुणट्ठाणपडिवादेण अधोपवत्तसंकमण परिणदस्स पढमसमए असंखेजगुणवड्डी होइ ति वत्तव्वं । अवत्तव्यसंकमो पुण सजेसिमेव सयोसामणपडिवादपढमसमए होइ ति घेत्तव्यं ।।
विशेषता नहीं है । किन्तु इतनी विशेषता है कि उनका विषयविभाग इस प्रकार जानना चाहिए। यथा-प्रकृत कर्मों के असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थानसंक्रम स्वस्थानमें ही होते हैं, क्योंकि उनके वहाँ होनेमें कोई रुकावट नहीं है। अनन्तानुबन्धियोंका असंख्यातगुणवृद्धिसंक्रम विसंयोजनाके समय अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमें होता है। विध्यातसंक्रमसेमिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवके प्रथम समयमें भी असंख्यातगुणवृद्धिसंक्रम प्राप्त होता है । तथा उन्हींका असंख्यातगुणहानिसंक्रम अधःप्रवृत्तसंक्रमके साथ सम्यक्त्वको ग्रहणकर विध्यातसंक्रमके प्राप्त होनेके प्रथम समयमें होता है, क्योंकि यहाँ पर असंख्यातगुणहानिको छोड़कर अन्य प्रकार नहीं उपलब्ध होता । अवक्तव्यसंक्रम भी उनका विसंयोजनापूर्वक संयोग होकर जिसका एक आवलिकाल गया है ऐसे जीवके प्रथम समयमें होता है ऐसा करना चाहिए । आठ कषाय, भय और जुगुप्साका चारित्रमोहनीयकी क्षपणामें और कषायों की उपशामनामें गुणसंक्रमके द्वारा संक्रम करनेवाले जीवके असंख्यातगुणवृद्धिसंक्रम होता है । उन्हींका उपशमश्रेणिमें गुणसंक्रमके साथ मरकर देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा असंख्यातगुणहानिसंक्रम होता है। दूसरे अधःप्रवृत्तसंक्रमसे संयम और संयमासंयमको प्राप्त करके विध्यातसंक्रममें पड़े हुए जीवके प्रथम समयमें आठ कषायोंका असंख्यातगुणहानिसंक्रम होता है । तथा इन्हीं का विध्यातसंक्रमसे नीचेके गुणस्थानोंमें गिरनेसे अधःप्रवृत्तसंक्रमरूपके परिणत हुए जीवके प्रथम समयमें असंख्यातगुणवृद्धिसंक्रम होता है ऐसा कहना चाहिए । परन्तु अवक्तव्यसंक्रम सभी कर्मों का सर्वोपशामनासे गिरनेके प्रथम समयमें होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।