Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो पुनणिरुद्धजहण्णसंतकम्मं संकामेमाणस्स विदियमसंखेजलोगमागुत्तरं संकमट्ठाणं होदि, जहण्णसंकमट्ठाणमसंखेजलोगेहि खंडेयूण एयखंडमेत्तेण तत्तो एदस्स अहियत्तदंसणोदो। एदं च विदियसंकमट्ठाणमेदेण सुत्तेण णिहिट्ठमणतम्हि चे कम्मे असंखेजलोगभागुत्तरसंकमट्ठाणं होइ ति एदेण विधिणा तदियादिपरिणामट्ठाणाणि वि जहाकम परिणमिय संकामेमाणाणमसंखेजलोगभागुत्तरकमेणासंखेजलोगमेत्तसंकमट्ठाणाणि समुपजंति ति पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तं भणइ--
® एवं जहपणए कम्मे असंखेजा लोगा संकमठाणाणि।
६७३२. कुदो ? णाणाकालसंबंधिणाणाजीवेहि तदियादिपरिणामट्ठाणेहिं परिवाडीए परिणमाविय तम्मि जहण्णसंतकम्मे संकामिजमाणे अवविदपक्खेवुत्तरकमेण पुनविरचिदपरिणामट्ठाणमेत्ताणं चेव संकमट्ठाणाणमुप्पत्तीए परिप्फुडमुवलंभादो । एवं पढमपरिवाडीए संकमट्ठाणपरूवणा गया। संपहि विदियपरिवाडीए संकमट्ठाणाणं परूवर्ण कुणमाणो तत्थ ताव तण्णिबंधणसंतकम्मवियप्पगवेसणहमुत्तरं सुत्तपबंधमाह
ॐ तवो पदेसुत्तरे दुपदेसुत्तरे वा एवमणंतभागुत्तरे वा जहण्णए संतकम्मे ताणि चेव संकमट्ठाणाणि।
संक्रम करनेवाले जीवके दूसरा असंख्यात लोक भाग अधिक संक्रमस्थान होता है, क्योंकि जघन्य संक्रमस्थानको असंख्यात लोकसे भाजित कर जो एक भाग लब्ध आवे उतना मात्र पूर्वोक्त स्थानसे यह संक्रमस्थान अधिक देखा जाता है । यह दुसरा संक्रमस्थान इस सूत्र द्वारा निर्दिष्ट किया गया है। पुनः उसी कमेमें असंख्यात लोक प्रतिभाग अधिक अन्य संक्रमस्थान होता है इस प्रकार इस विधिसे तृतीय आदि परिणामस्थानोंको भी क्रमसे परिणमा कर संक्रम करनेवाले जीवके असंख्यात लोक भाग अधिकके क्रमसे असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान उत्पन्न होते हैं इस प्रकार यह बात बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं -
* इस प्रकार जघन्य कर्ममें असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान होते हैं।
६७३२. क्योंकि नाना काल सम्बन्धी नाना जीवोंके द्वारा तृतीय आदि परिणामस्थानोंके आश्रयसे क्रमसे परिणमाकर उस जघन्य सत्कर्मके संक्रमित करने पर अवस्थित प्रक्षेप अधिकके क्रमसे पूर्व में रचित परिणामस्थानप्रमाण ही संक्रमस्थानोंकी उत्पत्ति स्पष्टरूपसे उपलब्ध होती है। इस प्रकार प्रथम परिपाटीसे संक्रमस्थानोंकी प्ररूपणा समाप्त हुई। अब द्वितीय परिपाटीसे संक्रमस्थानोंका कथन करते हुए वहाँ सर्व प्रथम उनके कारणभूत सत्कर्मके भेदोंका विचार करने के लिए
आगे का सूत्रप्रबन्ध कहते हैं____* उससे जघन्य सत्कर्ममें एक प्रदेश अधिक या दो प्रदेश अधिक या इस प्रकार एक एक प्रदेश अधिक होते हुए अनन्त माग अधिक होने पर वे ही संक्रमस्थान होते हैं।