Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 467
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ सुतेावो परिछजदे ?ण, वक्खाणादो विसेसपडिवत्ती होइ ति णायबलेण तदुवलदो | अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णकम्मेणे त्ति ऐदस्स विसेसणस्स उवलक्खणभावेण अवट्ठिदत्तादो च । तम्हा तहाभूदेण जहण्णसंतकम्मेणोवलक्खियस्स जीवस्स अधापवत्तकरणचरिमसमयजहण्णपरिणामेण मिच्छत्तस्स जहण्णपदेससंक्रमट्ठाणं होइ ति सिद्धों सुत्तत्थो । ४४० ६७२६. संपहि एवंभूदजहण्गसंतकम्मपडिबद्धजहण्णसंकमट्ठाणस्स पुत्रमवहारिदावा काढूण तो अजहण्णसं कमट्ठाणाणं परूवणद्वमुत्तरो सुत्तपबंधो । * प्रतहि चैव कम्मे असंखेज्जलो गभागुत्तरं संकमट्ठाणं होइ । ९७३०. एत्थ ताव संकमट्ठाणाणं साहणङ्कं तकारणभूद परिणाम णाणं परूवणं कस्साम । तं जहा - अधापवत्तकरणचरिमसमए असंखेज लोगमेत्तपरिणामट्ठाणाणि अत्थि । ताणि च जहण्णपरिणामप्पहुडि जानुकस्सपरिणामो ति ताव छवडिकमेणावट्टिदाणि सिमाददोपहुड असंखेज लोगमेत्तपरिणामट्ठाणाणि सव्त्रपरिणामट्ठाणपंतिआयामस्सासंखेज्जभागपमाणाणि परिणमिय जहण्णसंतकम्मं संकामेमाणस्स जहण्णसंकमट्ठाणमेवुप्पञ्जदि, विसरिस संक महागुप्पत्तीए तेसिमणिमित्ततादो । तदो एत्थ बिदियादिपरिणामट्ठाणाणमवणवण काढूण जहण्णपरिणामट्ठास्सेव गहणं कायव्वं । पुणो तदणंतरोवरिमपरिणामप्प शंका- सूत्रमें नहीं कहा गया यह विशेष कैसे जाना जाता है ? समाधान — नहीं, क्योंकि व्याख्यान से विशेष प्रतिपत्ति होती है इस न्याय के बलसे उसकी उपलब्धि होती है । तथा अभव्योंके योग्य जघन्य कर्मके श्राश्रयसे यह विशेषण उपलक्षणरूपसे अवस्थित है, इसलिए उक्त प्रकारके जघन्य सत्कर्मके युक्त जीवके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय में जघन्य परिणाम से मिथ्यात्त्रका जघन्य प्रदेशसंक्रमस्थान होता है यह सूत्रका अर्थ सिद्ध हुआ । ६७२६. अब जिसके स्वरूपका पहले अवधारण किया है ऐसे जघन्य सत्कर्म से सम्बन्ध रखनेवाले जघन्य संक्रमस्थानका अनुवाद करके आगे अजघन्य संक्रमस्थानोंका कथन करने के लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध श्राया है * उसी कर्म में असंख्यात लोक प्रतिभाग अधिक दूसरा संक्रमस्थान होता है । § ७३०. यहाँ पर सर्व प्रथम संक्रमस्थानोंकी सिद्धि करनेके लिए उनके कारणभूत परिणाम • स्थानोंका कथन करेंगे । यथा - श्रधः प्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें असंख्यात लोकमात्र परिणामस्थान होते हैं । वे जघन्य परिणामसे लेकर उत्कृष्ट परिणाम तक छह वृद्धिक्रमसे अवस्थित हैं। उनके प्रारम्भसे लेकर जो असंख्यात लोकप्रमाण. परिणामस्थान हैं जो कि सब परिणामस्थान पंक्तिके श्रायामके असंख्यातवें भागप्रमाण है उन्हें परिणमाकर जघन्य सत्कर्मका संक्रम करनेवाले जीवके जघन्य संक्रमस्थान ही उत्पन्न होता है, क्योंकि वे परिणाम विसदृश संक्रमस्थानकी उत्पत्ति निमित्त नहीं हैं । इसलिए यहाँ पर द्वितीय आदि परिणामस्थानोंका अपनयन कर जघन्य परिणाम स्थानका ही ग्रहण करना चाहिए। पुनः तदनन्तर उपरिम परिणामसे लेकर असंख्यात लोकमात्र

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