Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 460
________________ उत्तरपयडिपदेससंकमे समुक्तिणा * एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि, वरि अवद्वाणं णत्थि । ७१८. सम्मामिच्छत्तस्स वि एवं चेत्र समुक्कित्तणा कायन्त्रा, असंखेजभाग - दिपदा मत्थित्तं पडि विसेसाभावादो । विसेसो दु सम्मामिच्छतस्सावट्ठाणकमो णत्थि ति णायव्वो । संपहि एदेसिं पदाणं संभवविसयो परूविजदे । तं जहा - उवसमसम्माइट्ठिम्मि गुणसंकमादो विज्झादे पदिदम्मि तब्बिदियसमयप्यहुडि जाव उवसमसम्मत्तकालो ताव णिरंतरमसंखेज्जभागवडी चैत्र होइ । किं कारणं, वयादो तत्थायाहियत्तदंसणा दो । तं जहा - देवड्डुगुणहाणिमेत्त समयपबद्धेषु गुणसंकमभागहारेण विज्झादभागहारपदुप्पण्णेणोवट्ठिदेसु सम्मामिच्छत्तादो ससम्मत्तं गच्छमाणदव्वं होइ । एसो सम्मामिच्छत्तस्स वयो | आयो वुण एत्तो असंखेजगुणो, विज्झादभागहारेण मिच्छत्तसयलदुव्वे खंडिदे तत्थेयखंडपमाणतादो । जदो एवं तदो आयादो वये परिसोहिदे सुद्ध सेसमेत्तेण सगमूलदव्त्रस्सा संखेञ्ज दिभागभूदेण पडिसमयसम्मामिच्छत्तसंतकम्मस्स तत्थ व होइ ति तदणुसारिणो संकमस्स वि तहाभावोववत्तीदो सिद्धमसंखेज भागवडिविसयो एसो. ति । जइ एवं भुजगाराणियोगद्दारे एसो वि विसयो भुजगार संकमस्स कायव्वो । च सुते तहा परूवणा अत्थि, उब्वेन्ळणाचरिमखंडयसम्मत्तप्पत्तिगुण संकमदंसणमोहक्खागगुणसंकमविसय तेण तत्थ तिसु अद्धासु भुजगारसा मित्तस्स णियामिदत्तादो । गा० ५८ ४३३ * इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वके विषयमें भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसका अवस्था संक्रम नहीं होता । ७१८. सम्यग्मिथ्यात्वकी भी इसी प्रकार समुत्कीर्तना करनी चाहिए क्योंकि असंख्यात - भागहानि और असंख्यात भागवृद्धि आदि पदों के अस्तित्त्रके प्रति कोई विशेषता नहीं है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वका अवस्थानसंक्रम नहीं होता ऐसा जानना चाहिए । अब - इन पदोंका सम्भव विषय कहते हैं। यथा-उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके गुणसंक्रमसे विध्यातसंक्रम में आने पर उसके दूसरे समय से लेकर उपशमसम्यक्त्वके कालतक निरन्तर असंख्यात भागवृद्धिसंक्रम ही होता है, क्योंकि व्ययकी अपेक्षा वहाँ पर आयकी अधिकता देखी जाती है । यथा- विध्यातसंक्रमभागहारसे गुणित गुणसंक्रमभागहारके द्वारा डेढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्धोंके भाजित करने पर सम्यग्मिध्यात्वमें से वह सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाला द्रव्य होता है । यह सम्यग्मिथ्यात्वका व्यय है । परन्तु आय इससे असंख्यातगुणा है, क्योंकि विष्यात भागहारके द्वारा मिथ्यात्व के समस्त द्रव्यके भाजित करने पर वह एक खण्डप्रमाण होता है। यदि ऐसा है तो श्रयमेंसे व्ययके कम कर देने पर अपने मूल द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण शुद्ध शेष द्रव्यके श्राश्रयसे प्रत्येक समयमें वहीँ सम्यग्मिथ्यात्व सत्कर्मकी वृद्धि होती है, इसलिए उसका अनुसरण करनेवाला संक्रम भी उसी प्रकार बन जानेसे असंख्यात भागवृद्धिका विषयभूत यह सिद्ध हुआ । शंका- यदि ऐसा है तो भुजगार अनुयोगद्वार में भुजगार संक्रमका यह विषय भी कहना चाहिए। परन्तु सूत्र में उस प्रकारको प्ररूपणा नहीं है, क्योंकि उद्वेलनाका अन्तिम खण्ड, सम्यक्त्वकी उत्पत्ति के समय होनेवाला गुणसंक्रम और दर्शनमोहनीयकी क्षपणा के समय होनेवाला ५५

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