Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
४१८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ तविवक्खा ण कया सुत्तयारेण, सेससम्बकम्मेसु तहा चेव जहण्णसामित्तपवुत्तिदंसणादो । एवमोघेण सम्बकम्माणं जहण्णसामित्तं परूविदं । एतो आदेसपरूवणा च जाणिय कायन्वा ।
तदो सामित्वं समत्तं । * अप्पाबहुवे। .६६८६. अहियारपरामरसवक्कमेदं । तं पुण दुविहमप्पाबहुगं जहण्णुकस्समेएण । तत्थुक्कस्सप्पाबहुगं ताव वत्तइस्सामो ति जाणावणहमिदमाह -
ॐ उकस्सयं ताव ।
६६६०. जहण्णुक्कस्सप्पाबहुगाणमकमेण परूवणा ण संभवदि ति उकस्सप्पाबहुअपरूव गाविसयमेदं पइण्णावकं । तस्स दुविहो णिद्देसो ओघादेसमेएण । तत्थोघेण ताव सबकम्माणमप्पावहुअपरूवणमुत्तरसुत्तपबंधमाह
® मिच्छत्तस्स सव्वत्योवमुकस्सयमवहाणं ।
शंका-उसकी अविवक्षा यहाँ पर क्यों की गई है ?
समाधान-क्योंकि जघन्य वृद्धिके सम्भव स्थल पर ही जघन्य हानिके स्वामित्वके कथन करनेके अभिप्रायसे ही सूत्रकारने उसकी विवक्षा नहीं की है तथा शेष सब कर्मों में उसी प्रकारसे जघन्य स्वामित्वकी प्रवृत्ति देखी जाती है।
इस प्रकार ओघसे सब कर्मो के जघन्य स्वामित्वका कथन किया। आगे आदेशप्ररूपणा जानकर लेनी चाहिए।
- इसके बाद स्वामित्व समाप्त हुआ। * अल्पबहुत्वका अधिकार है।
६६८६. अधिकारका परामर्श करानेवाला यह वचन सुगम है। जघन्य और उत्कृष्ट के भेदसे वह अल्पबहुत्व दो प्रकारका है। उनमेंसे सर्व प्रथम उत्कृष्ट अल्पबहुत्वको बतलावेंगे इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेके लिए यह वचन कहा है
* सर्व प्रथम उत्कृष्ट अन्पबहुत्वका अधिकार है।
६६६०. जघन्य और उत्कृष्ट अल्पबहुत्वोंकी प्ररूपणा एक साथ करना सम्भव नहीं है, इसलिए उत्कृष्ट अल्पबहुत्वकी प्ररूपणाको विषय करनेवाला यह प्रतिज्ञावाक्य है। ओघ और आदेशके भेदसे उसका निर्देश दो प्रकारका है। उनमेंसे सर्व प्रथम ओघ अल्पेबहुत्वका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र प्रबन्ध कहते हैं
* मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है।