Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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४१६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ तदो मावलियअरदि-सोगबंधगस्स जहपिणया हाणी । से काले जहपिणया वड्डी।
६६८६. जहा हस्स-रदीणं जहण्णवहि-हाणिसामित्तपरूवणा कया तहा अरदिसोगाणं पि कायया । णवरि पुवमेत्थ हस्स-रदीओ बंधाविय पडिवक्खबंधगद्धागालणं कादूण तदो आवलियअरदि-सोगबंधगद्धम्मि पयदकम्माणं जहण्णहाणिसामित्तं । से काले च पुव्वुत्तेणेव विहिणा जहण्णवविसामित्तमिदि एसो विसेसो सुत्तेणेदेण णिपिट्ठो ।
एवमित्थिवेद-णQसयवेदाणं । ६६८७. जहा हस्स-रह-अरइ-सोगाणं खविदकम्मंसियस्स पडिवक्खबंधगद्धागालणेण सामित्तविहाणं कयं, एवमेदेसि पि दोण्हं कम्माणं कायध्वं,विसेसाभावादो । णवरि पडिवक्खबंधगद्धागालणाविसये दोण्हं कम्माणं कमविसेसो अस्थि त्ति तप्पदुप्पायणद्वमुत्तरसुत्तद्दयमाह.*णवरि जइ इत्थिवेदस्स इच्छसि, पुव्वं पवु सयवेद-पुरिसवेदे बंधावेदूण पच्छा इत्थिवेदो बंधावेयव्वो। तदो आवलियइत्थिवेदबंधमाणयस्स इस्थिवेदस्स जहपिणया हाणी । से काले ज हरिणया वड्ढी।
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काल तक अरति और शोकका बन्ध करनेवाले जीवके जघन्य हानि होती है और तदनन्तर समयमें जघन्य वृद्धि होती है ।
६६८६. जिस प्रकार हास्य और रतिकी जघन्य वृद्धि और हानिका कथन किया है उसी प्रकार अरति और शोकका भी कथन करना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि पूर्वमें यहाँ पर हास्य और रतिका बन्ध कराकर तथा प्रतिपक्ष बन्ध कालको समाप्त कर तदनन्तर एक आवलि प्रमाण अरति ओर शोकके बन्धककालके अन्तमें प्रकृत कर्मों की जघन्य हानिका स्वामित्व होता है । और तदनन्तर समयमें पूर्वोक्त विधिसे ही जघन्य वृद्धिका स्वामित्व होता है इस प्रकार इतनी विशेषता इस सूत्रके द्वारा निर्दिष्ट की गई है।
* इसी प्रकार स्त्रीवेद और नपुसकवेदके स्वामित्वका कथन करना चाहिए।
६६८७. जिस प्रकार क्षपितकर्मा शिक जीवके प्रतिपक्ष बन्धककाल को बिताने के बाद हास्यरति और अरति-शोकके स्वामित्वका विधान किया है इसी प्रकार इन दोनों कर्मों का भी विधान करना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रतिपक्ष बन्धककालके गलानेके विषयमें दोनों कर्मोंके क्रममें कुछ विशेषता है, इसलिए इसका कथन करनेके लिए आगेके दो सूत्र कहते हैं
* किन्तु इतनी विशेषता है कि यदि स्त्रीवेदके स्वामित्व कथनकी इच्छा हो तो पूर्वमें नपुसकवेद और पुरुषवेदका बन्ध कराकर बादमें स्त्रीवेदका बन्ध करावे । इस प्रकार एक आवलिकाल तक स्त्रीवेदका बन्ध करनेवाले जीवके स्त्रीवेदकी जघन्य हानि होती है और तदनन्तर समयमें जघन्य वृद्धि होती है।