Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा०५८] उत्तरपडिपदेससंकमे पदणिक्खेवो
४१६ ६६६१. कुदो १ एयसमयपबद्धासंखेज्जदिभागपमाणत्तादो। तं जहा-गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागदपुवुप्पण्गसम्मत्तमिच्छाइद्विस्स सम्मत्तपडिवण्णस्स पढमावलियविदियसमये वट्टमाणस्स असंकमपाओग्गभावेणुदयावलियं पविसमाणगोवुच्छदव्वं पढमसमयविज्झादसंकमदवसहिदं थोवणमेगसमयपबद्धमेत्तं होइ, तत्थेव संकमपाओग्गभावेण ढुकमाणं सयलेयसमयपबद्धमत्तं होइ । एवं होइ ति कादूण संकमपाओग्गभावेण गददव्यमेत्तं संकमपाओग्गं होणागच्छमाणसमयपपद्धम्मि घेत्तण चिराणसंतकम्मस्सुवरि पक्खिविय विज्झादभागहारेण भाजिदे भागलद्ध पढमसमयसंकामिददव्यमेत्तं चत्र विदियसमयसंकमदव्यं होइ । पुणो सेसमसंखेजदिमागं पि तेणेव भागहारेण संकामेदि त्ति विज्झादभागहारेण भाजिदे भागलद्धमसंखेजदिभागस्स वि असंखेज्जभागमेतं होदूण विदियसमयवडिदव्वं होदि । एवं विदियसमए वड्डिऊण पुणो तदियसमयम्मि तत्तियमेते चेत्र संकामिदे वहिदव्यमेतं चेत्र उकसावट्ठाणविसेसिददव्वं होइ । तदो सव्वत्थोवमेदं ति सिद्ध।
६६६२. अहवा जइ वि एगसमयपबद्धस्सासंखेज्जाणं भागाणमसंखेज्जदिभागमेतमवद्विददव्वं होइ तो वि सव्वत्थोवत्तमेदस्स ण विरुज्झदे। तं कधं ? पुव्वुप्पण्ण
६६६१. क्योंकि वह एक समयप्रबद्धका असंख्यातवें भागप्रमाण है। यथा-जो गुणित कर्मा शिकलक्षणसे आया है और जिसने पूर्वमें सम्यक्त्वको उत्पन्न किया है ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यक्त्वको प्राप्त होने पर प्रथम आवलिके दूसरे समयमें विद्यमान रहते हुए असंक्रमके योग्य उदयावलिमें प्रवेश करनेवाला गोपुच्छाका द्रव्य प्रथम समयमें विध्यातसंक्रमके द्रव्यसे युक्त होकर कुछ कम एक समयप्रबद्ध प्रमाण होता है । तथा वहीं पर संक्रमके योग्यरूपसे प्राप्त होनोवाला द्रव्य सकल एक समयप्रबद्धप्रमाण होता है । इस प्रकार होता है ऐसा समझकर संक्रमके प्रायोग्यभावसे गत द्रव्य प्रमाण संक्रमप्रायोग्य होकर आनेवाले समयप्रबद्ध मेंसे ग्रहणकर प्राचीन सत्कर्मके ऊपर प्रक्षिप्त कर विध्यातभागहारके द्वारा भाजित करने पर जो भाग लब्ध आवे उतना प्रथम समयमें संक्रमित होनेवाला द्रव्य होता है और उतना ही दूसरे समयमें संक्रमित होनेवाला द्रव्य होता है । पुनः पुनः शेष असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्य भी उसी भागहारके आश्रयसे संक्रमित होता है इसलिए विध्यातभागहारके द्वारा भाजित करने पर जो भाग लब्ध प्रावे वह असंख्यातवें भागका भी असंख्यातवां भाग होकर दूसरे समयमें वृद्धि रूप द्रव्यका प्रमाण होता है। इस प्रकार दूसरे समयमें वृद्धि करके पुन तीसरे समयमें उतने ही द्र०के संक्रमित करने पर वृद्धि द्रव्यके बराबर ही उत्कृष्ट अवस्थानसे युक्त द्रव्य होता है, इसलिए यह सबसे स्तोक है यह सिद्ध हुआ।
६६६२. अथवा यद्यपि एक समय प्रबद्धके असंख्यात बहुभागोंके असंख्यातवें भागप्रमाण अवस्थित द्रव्य होता है तो भी यह सबसे स्तोक है यह बात विरोधको नहीं प्राप्त होती ।
शंका-वह कैसे ? समाधान-क्योकि पूर्व में उत्पन्न हुए सम्यग्दृष्टिजीवके दूसरे समयमें असंक्रमप्रायोग्य