Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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४०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे.
[बंधगो६ व्वेन्लणासंकमेण जहण्णहाणिसामित्तमेदं होइ ति सुत्तत्यो। दुचरिमद्विदिखंडयदुचरिमफालिदव्वादो तस्सेव चरिमफालिदव्वे सोहिदे सुद्धसेसमेत्तमेत्थ हाणिपमाणं होइ ।
® तस्सेव से काले जहपिणया वड्डी।
हु ६७१. तस्सेव हाणिसामियस्स तदणंतरसमए जहणिया वट्ठी होइ । कुदो ? तत्थ पलिदोवमासंखेजभागपडिभागियगुणसंक्रमेण जहण्णभावाविरोहेण परिणदम्मि तदुवलद्धीदो।
एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि। ६ ६७२. जहा सम्मत्तस्स दुविहा सामित्तपरूवणा कया एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि कायन्वा, विसेसाभावादो। णवरि जहण्णवहिसामित्ते भण्णमाणे दुचरिमुव्वेन्लणकंडयचरिमफालिमुव्वेन्लणभागहारेण संकामिय तदो उवरिमसमयम्मि सम्मत्तमुप्पाइय विज्झादसंकमेण संकामेमाणयस्स जहणिया वही दट्ठव्वा, गुणसंकमजणिदवड्डीदो विज्झादसंकमजणिदवडीए सुटु जहण्णभावोववत्तीदो । तत्थ वि गुणसंकमो अत्थि ति णासंकणिजं, तत्थतणसम्मामिच्छत्तगुणसंकमभागहारस्स अंगुलस्सासंखेजभागपमाणत्तोवएसादो। ण च एसो अत्यो सुत्ते णत्थि, से काले जहणिया वड्डी होइ ति सामण्णसरूवेण पयट्टः सुचम्मि एदस्स अत्थविसेसस्स संभवोवलंभादो। असंख्यातवें भागरूप प्रतिभागके द्वारा उद्वेलना संक्रम होनेसे यह जघन्य स्वामित्व होता है यह इस सूत्रका अर्थ है । द्विचरम स्थितिकाण्डकके द्विचरम फालि द्रव्यमेंसे उसीकी अन्तिम फालिके द्रव्यके घटाने पर जो शेष बचे उतना यहाँ पर जघन्य हानिका प्रमाण होता है।
* उसीके अनन्तर समयमें जघन्य वृद्धि होती है।
६६७१. जो जघन्य हानिका स्वामी है उसीके तदनन्तर समयमें जघन्य वृद्धि होती है, क्योंकि वहाँ पर जघन्यपनेके अविरोधी. पल्यके असख्यातवें भागप्रमाण भागहाररूप गुणसंक्रमरूपसे परिणत होनेषर जघन्य वृद्धिकी उपलब्धि होती है।
* इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्वके भी जघन्य स्वामित्वकी प्ररूपणा करनी चाहिए ।
६६.२. जिस प्रकार सम्यक्त्वके स्वामित्वकी दो प्रकारकी प्ररूपणा की है उसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी भी करनी चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेष नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि जघन्य वृद्धिके स्वामित्वका कथन करते समय द्विचरम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिको उद्वेलनाभागहारके द्वारा संक्रमाकर अनन्तर अगले समयमें सम्यक्त्वको उत्पन्न कर विध्यातसंक्रमके द्वारा संक्रम करनेवाले जीवके जघन्य वृद्धि जाननी चाहिए, क्योंकि गुणसंक्रमसे उत्पन्न हुई वृद्धिकी अपेक्षा विध्यातसंक्रमसे उत्पन्न हुई वृद्धिका अच्छीतरह जघन्यपना बन जाता है। वहाँ पर भी गुणसंक्रम है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वहाँ पर जो सम्यग्मिथ्यात्व का गुणसंक्रम भागहार होता है वह अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है ऐसा उपदेश पाया जाता है। यह अर्य सूत्र में नहीं है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि 'तदनन्तर समयमें जघन्य वृद्धि होती है। इस प्रकार सामान्यरूपसे प्रबृत हुए सूत्र में इस अर्थविशेषकी सम्भावना उपलब्ध होती है।