Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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४.२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ गुणं करिय जहण्णसंतकम्मट्ठाणे भागे हिदे तत्थ जं भागलद्धं तम्मि तत्व जहण्णसंतकम्मट्ठाणम्मि पडिरासिय पक्खित्ते बिदियसंतकम्मट्ठाणमुप्पजदि ति वुत्तं होइ । कुदो एदं णबदे ? उवरिमसंकमट्ठाणपरूवणाए णिबद्धचुण्णिसुत्तादो। एदिस्से संतकम्मवड्डीए संतकम्मपक्खेवो ति सण्णा।
६६६७. संपहि एवंविहपक्खेवुत्तरसंतकम्मट्ठाणमस्सिऊण पयदजहण्णवद्धि हाणिअवट्ठाणाणमेवं सामित्तपरूवणा कायव्वा । तं जहा-जहण्णपरिणामट्ठाणेण परिणमिय संपहि णिरुद्धपक्खेवत्तरसंतकम्मट्ठाणं संकामेमाणस्स एत्थतणजहण्णसंकमट्ठाणं होदि । होतं पि जहण्णसंतकम्मट्ठाणपडिबद्धजहण्णसंकमट्ठाणादो असंखेजमागभहियं होदण तस्सेव विदियसंकमट्ठागादो वि असंखेजभागहीणं होदूण चेहदि । किं कारणं ? तत्थतणसंकमट्ठाणविसेसस्सासंखेजदिमागभूदसंतकम्मपक्खेवे बिज्झादभागहारेण खंडिदे तत्थेयखंडमेत्तेण पविल्लजहण्णसंकमट्ठाणादो एदस्स बिदियपरिवाडिजहण्णसंकमट्ठाणस्समहियत्तदसणादो । एवं होइ ति कादूण सम्माइट्ठिपढमसमयम्मि पढमसंकमट्ठाणपरिवाडिजहण्णसंकमट्ठाणमवत्तव्यभावेण संकामिय पुणो विदियसमयम्मि विदियसंकमट्ठाणपरिवाडीए जहण्णसंकमट्ठाणे संकामिदे जहणिया वड्डी होइ ।
सत्कर्मस्थान उत्पन्न होता है। विध्यातभागहारको और असंख्यात लोकके वर्गको परस्पर गुणित कर उसका जघन्य सत्कर्मस्थानमें भाग देने पर वहाँ जो भाग लब्ध आवे उसे वहीं पर जघन्य सत्कर्मस्थानको प्रति राशिकर मिला देने पर दूसरा सत्कर्मस्थान उत्पन्न होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-आगे संक्रमस्थान प्ररूपणामें निबद्ध चूर्णिसूत्रसे जाना जाता है । इस सत्कर्म वृद्धिकी सत्कर्म प्रक्षेप यह संज्ञा है।
६६६७. अब इस प्रकार प्रक्षेप अधिक सत्कर्मस्थानका आश्रय लेकर प्रकृत जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानके स्वामित्वकी इस प्रकार प्ररूपणा करनी चाहिए। यथा-जघन्य परिणामस्थानरूपसे परिणमन कर अब विवक्षित प्रक्षेप अधिक सत्कर्मस्थानका संक्रम करनेवाले जीवके यहाँका जघन्य संक्रमस्थान होता है । जो होता हुआ भी जघन्य सत्कर्मस्थानसे प्रतिबद्ध जघन्य संक्रमस्थानसे असंख्यातवा भाग अधिक होकर तथा उसीके दूसरे संक्रमस्थानसे भी असंख्यातवाँ भाग हीन होकर स्थित है, क्योंकि वहाँके संक्रमस्थानविशेषके असंख्यातवें भागरूप सत्कर्मप्रक्षेपमें विध्यातभागहारका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतनी पहलेके जघन्य संक्रमस्थानसे दूसरी परिपाटीमें उत्पन्न इस जघन्य संक्रमस्थानकी अधिकता देखी जाती है। ऐसा होता है ऐसा करके सम्यग्दृष्टिके प्रथम समय में प्रथम संक्रमस्थान परिपाटीके जघन्य संक्रमस्थानको अवक्तव्यरूपसे संक्रमाकर पुनः दूसरे समयमें दूसरी संक्रमस्थान परिपाटीके जघन्य संक्रमस्थानके संक्रमित करनेपर जघन्य वृद्धि होती है।