Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो
३९ मट्ठपदभूदा ति भणिदं होइ । संपहि एवं परूविदमट्ठपदमस्सिऊण पयदजहण्णसामित्तविहासणट्ठमुत्तरो सुत्तपबंधो
8 एदाए परूवणाए मिच्छत्तसस जहरिणया वड्डी हाणी प्रवट्ठाणं वा कसस ?
६६६२. सुगममेदं पुच्छासुत्तं । णेदमेत्थासंकणिजं, पुवमेव मिच्छत्तजहण्णवद्धिसामित्तविसयपुच्छाणिद्दे सस्स कयत्तादो पुणरुवण्णासो णिरत्थवो ति। कुदो ? अत्थपरूवणाए अंतरिदस्स्स तस्सेव संभालणटुं पुणवण्णासे दोसाभावादो पुबिल्लपुच्छाणिदेसेणासंगहियाणं हाणि-अट्ठाणसामित्ताणमेत्थ संगहोवलंभादो च ।
ॐ जम्हि तप्पाओग्गजहएणगेण संकमण से काले अवहिदसंकमो संभवदि तम्हि जहपिणया वड्डी वा हाणी वा से काले जहणणयमवट्ठाणं ।
६६६३. जम्हि विसए तप्पाओग्गजहण्णएण संकमेण परिणदस्स से काले अवविदसंकमपरिणामसंभवो तम्हि विसए पयदजहण्णसामित्तमणुगंतव्वं । कम्हि पुण विसये अर्थपदका आश्रय कर प्रकृत जघन्य स्वामित्वका व्याख्यान करनेके लिए आगेका सूत्र प्रबन्ध कहते हैं
* इस प्ररूपणाके अनुसार मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान किसके होता है ?
६६६२. यह पृच्छासूत्र सुगम है । यहाँ पर यह शंका नहीं करनी चाहिए कि मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धिके स्वामित्वसम्बन्धी पृच्छाका निर्देश पूर्वमें ही कर आये हैं, इसलिए उसका पुनः उपन्यास करना निरर्थक है, क्योंकि अर्थप्ररूपणाके द्वारा व्यवधानको प्राप्त हुए उक्त कथनकी सम्हाल करनेके लिए पुनः उपन्यास करनेमें कोई दोष नहीं है तथा पूर्वमें किये पृच्छानिर्देशके द्वारा संगृहीत नहीं किये गये हानि आर अवस्थानसम्बन्धी स्वामित्वका यहाँ पर संग्रह उपलब्ध होता है, इसलिए भी कोई दोष नहीं है।
* जहाँ पर तत्प्रायोग्य जघन्य संक्रमसे तदनन्तर समयमें अवस्थान संक्रम सम्भव है वहाँ पर जघन्य वृद्धि या जघन्य हानि तथा तदनन्तर समयमें जघन्य अवस्थान होता है।
६६६३. जिस विषयमें तत्प्रायोग्य जघन्य संक्रमसे परिणत हुए जीवके तदनन्तर समयमें अवस्थित संक्रमके अनुरूप परिणामका संक्रम सम्भव है उस विषयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्व जानना चाहिए।
शंका तो किस विषयमें मिथ्यात्वका तत्प्रायोग्य जघन्य संक्रमरूपसे अवस्थान संक्रम सम्भव है ?
समाधान-कहते हैं-जो जीव क्षपितकर्मा शिक लक्षणसे आकर पूर्वमें उत्पन्न हुए सम्यक्त्वसे मिथ्यात्वको प्राप्त होकर तत्प्रायोग्य कालके द्वारा फिरसे वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है वह प्रथम आवलिके द्वितीयादि समयों में अवस्थित संक्रमके योग्य होता है, क्योंकि मिथ्यादृष्टिकी