Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा०५८] उत्तरपयडिपेदेससंकमे पदणिक्खेवो
३६७ 8 एवमित्थि-णवंसयवेद-हस्स-रह-अरइ-सोगाणं ।
६६५६. जहा भयदुगुछाणमुक्कस्ससामित्तं परूविदं तहा एदेसि पि परूवेयव्वं । संपहि एदेण सामण्णणि सेणेदेसि कम्माणमवट्ठाणसंकमस्स वि अत्थित्तप्पसंगे तण्णिवारण?मुत्तरसुत्तं भणइ -
* वरि अवट्ठाणं णत्थि ।
६६५७. कुदो? परावत्तणपयडीणमेदासिमवट्ठाणसंभवाभावादो। एवमोघेणुकस्ससामित्तपरूवणा गया । एदीए दिसाए आदेसपरूवणा च विहासियव्वा ।
तदो उक्कस्ससामित्तं समत्तं । * मिच्छत्तस्स जहएिणया वडढी कस्स ? ६६५८. सुगममेदं पुच्छासुतं । एवं पुच्छाविसयीकयसामित्तणिदेसे कायव्वे तत्थ ताव सबकम्माणं साहारणभावेण जहण्णवडिहाणि-अवट्ठाणाणं पमाणावहारणट्ठमट्ठपदं परूवेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
* जस्स कम्मस अवहिदसंकमो अत्थि तस्स असंखेज्जा लोगपडिभागो वड्डी वा हाणी वा अवट्ठाणं वा होइ।
* इसी प्रकार स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोकका उत्कृष्ट स्वामित्व जानना चाहिए।
६६५६. जिस प्रकार भय और जुगुप्साके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन किया उसी प्रकार इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्वामित्वका भी कथन करना चाहिए। अब इस सामान्य निर्देशसे इन कर्मों के अवस्थान संक्रमका भी अस्तित्व प्राप्त होने पर उसका निवारण करनेके तिए आगेका सूत्र कहते हैं
* किन्तु इतनी विशेषता है कि उक्त प्रकृतियोंका अवस्थान संक्रम नहीं है।
६६५७. क्योंकि परावर्तमान इन प्रकृतियोंका अवस्थान सम्भव नहीं है । इस प्रकार ओघसे उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन समाप्त हुआ। इसी पद्धतिसे आदेश प्ररूपणाका व्याख्यान कर लेना चाहिए।
इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। * मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ?
६६५८. यह पृच्छा सूत्र सुगम है । इस प्रकार पृच्छाके द्वारा विषय किये गये स्वामित्वका निर्देश करते समय उसमें सर्व प्रथम सब कर्मों के साधारण भावसे जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानके प्रमाणका अवधारण करने के लिए प्रथेपदका कथन करते हए आगेके सूत्रप्रवन कहते हैं
___ * जिस कर्मका अवस्थित संक्रम होता है उस कर्मकी असंख्यात लोक प्रतिभा रूपसे वृद्धि, हानि और अवस्थान होता है ।