Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा०५८] उत्तरपडिपदेससंकमे भुजगारो .
३३७ * उफस्सेण अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरिया।
४५२. कुदो एयवारमवद्विदसकमेण परिणदस्स पुण्णे तदसंभवेणासंखेजपोग्गलपरियट्टमेत्तकालमुक्कस्सेणावट्ठाणभुवगमादो। असंखेज-लोगमेत्तमुक्कस्संतरमवडिदपदस्स परूविदमुच्चारणाकारेण कथमेदेण सुत्तेण तस्साविरोहो ति ण, उवएसंतरावलंबणेणाविरोहसमत्थणादो।
* अवत्तव्वसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? . ६४५३. सुगमं ।
* जहणणेण अंतोमुत्तं ।
६४५४. तं जहा-विसंजोयणापुब्बं संजोगे णाकबंधावलियादिक्कतपढमसमएआत्तत्रसंकमस्सादि कादूर्णतरिय पुणो सबलहुं सम्मत्तं पडिवजिय विसंजोएदूण संजुत्तस्स बंधावलियवदिक्कमे लद्धमंतरं होइ।।
* उकास्सेण उवडपोग्गलपरियहूँ । ६४५५. तं कधं १ अद्धपोग्गलपरियट्ठादिसमए सम्मत्तमुप्पाइय उवसमसम्मत्त* उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन के बराबर है।
६४५२. क्योंकि एक बार अवस्थित संक्रमसे परिणत हुए जीवके पुनः वह असम्भव होनेसे अवस्थित संक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण स्वीकार किया गया है।
शंका-उच्चारणाकारने अवस्थित संक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है, इसलिए सूत्रके साथ उसका अविरोध कैसे घटित होता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि उपदेशान्तरके अवलम्बन द्वारा अविरोधका समर्थन किया गया है।
* अवक्तव्य संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ६४५३. यह सूत्र सुगम है।
* जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है।
६४५४. यथा-विसंयोजनापूर्वक संयोग होने पर नवकबन्धावलिके व्यतीत होनेके प्रथम समयमें प्रवक्तव्य संक्रमका प्रारम्भ करके और उसका अन्तर करके पुनः अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त करके विसंयोजनापूर्वक संयुक्त होनेके बाद बन्धावलिके व्यतीत होने पर पुनः अवक्तव्यसंक्रम होकर उसका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्राप्त होता है।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधं पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। ६४५५. शंका-वह कैसे ? समाधान-अर्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण कालके प्रथम समयमें सम्यक्त्वको उत्पन्न करके
पुव ता०।
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