Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
३४८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
(बंधगो ६ ४६४. देवेसु मिच्छ० सम्म० सम्मामि०-अणंताणु०४-इत्थिःणस० णारयभंगो । णवरि जम्मि तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि तम्मि० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । बारसक० पुरिसवे०-छण्णोक० णारयभंगो। एवं भवणादि जाव णवगेवजा ति । णवरि सगढिदी देसूणा।
६४६५. अणुदिसादि सव्वट्ठा ति मिच्छ० सम्मामि०-इत्थिवे..णवंस० णत्थिअंतरं । अणंताणु०४ भज० अप्प०संका गत्थि अंतरं । बारसक०-पुरिसवे०-भय-दुगुंछ. भज० अप्प० ओघं। अवढि० संका० जह० एयस० । उक्क० सगहिदी देसूणा । चदु. णोक० भुज० अप्प०संका० जह० एयस० । उक्क० अंतोमु० । एवं गइमग्गणा समत्ता । नोकषायोंके प्रवक्तव्य संक्रमका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व, प्रमाण कहा है, क्योंकि इन प्रकृतियोंका प्रवक्तव्य संक्रम उपशमश्रेणिमें होता है और उपशम श्रेणिका आरोहण कर्मभूमिज मनुष्योंमें ही सम्भव है।
विशेषार्थ (२)-पुरुषवेदको अवस्थितका अन्तर ओघमें अर्धपुद्गल परिवर्तन, सामान्य मनुष्य व मनुष्यपर्याप्तमें पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य कहनेका यह कारण ज्ञात होता है कि पुरुषवेद वाले मनुष्यके सम्यग्दर्शनमें पुरुषवेदको अवस्थित हो जाने पर मिथ्वात्वमें जाकर अन्तर हो गया पुनः जब वह पुरुषवेद वाला मनुष्य होकर सम्यक्त्व ग्रहण किया उसके पुनः पुरुषवेदको अवस्थित हुई। किन्तु अन्य जीवोंके सम्यक्त्व कालके प्रारंभ और अन्तमें पुरुषवेदको अवस्थित होनेसे अन्तर कहा है उनके मिथ्यात्व अवस्थामें पहुंचकर पुनः सम्यक्त्वकी प्राप्ति होनेपर पुरुषवेदको अवस्थितका अन्तर उपलब्ध नहीं होता। इसमें कारण क्या है यह समझमें नहीं आता। फिर भी अन्तरकाल उपर्युक्त दृष्टिसे कहा गया है यह बात समझमें आती है।
६४६४. देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भङ्ग नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि जहाँ पर कुछ कम तेतीस सागर कहा है वहाँ पर कुछ कम इकतीस सागर कहना चाहिए। बारह कषाय, पुरुषवेद और छह नोकषायोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए।
विशेषार्थ देवोंमें सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों गुणोंकी प्राप्ति नौ प्रैवेयक तक ही सम्भव है, इसलिए इनमें नारकियोंकी अपेक्षा इतनी विशेषता कही है। शेष कथन स्पष्ट है।
६४६५. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके सम्भव पदोंका अन्तरकाल नहीं है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कके भुजगार और अल्पतर संक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके भुजगार
अल्पतर संक्रामकका भङ्ग ओघके समान है। अवस्थित संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ बारह कषाय आदिके भुजगार और अल्पतर संक्रामकका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण होनेसे यहाँ इनका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। किन्तु इनके अवस्थित संक्रमका ऐसा कोई नियम नहीं है। वह एक समयके अन्तरसे भी हो सकता है और मध्यमें न
भारअ