Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा०५८]
उत्तरपयदेडिपससंकमे भुजगारो ६४६६. एत्तो सेसमग्गणाणं देसामासयभावेणिदियमग्गणेयरदेसभूदेएईदिएसु पयदंतरविहासणटुमुत्तरप्पबंधमाह।
8 एइंदिएसु सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पत्यि किंचि वि अंतरं।
६४६७. कुदो ? तत्थ संभवंताणं पिं भुजगारप्पदरपदाणं लद्धंतरकरणोवायामावादो।
सोलसकसाय-भय-दुछाणं भुजगार-अप्पयर-संकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि? ६४६८. सुगमं ।
जहणणेण एयसमयो। ६ ४६६. भुजगारप्पदराणमण्णोण्णेणावडिदसंकमेण वा एयसमयमंतरिदाणं विदियसमये पुणो वि संभवं पडि विरोहामावादो।
उकस्सेण पतिदोवमस्स असंखेजविभागो। होकर जीवन के प्रारम्भमें और अन्तमें भी हो सकता है । यही कारण है कि यहाँ पर इनके अवस्थित संक्रमका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थिति प्रमाण कहा है । चार नोकषायोंके भुजगार और अल्पतर संक्रमका जघन्य संक्रमकाल एक समय और उत्कृष्ट संक्रमकाल अन्तमुहूर्त होनेसे यहाँ पर इनका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन सुगम है।
इस प्रकार गतिमार्गणा समाप्त हुई। ६४६६. अब शेष मार्गणाओंके देशामर्षक भावसे एक देशभूत एकेन्द्रिय मार्गणके एकेन्द्रियों में प्रकृत अन्तरकालका व्याख्यान करनेके लिए आगेके सूत्रप्रवन्धको कहते हैं
* एकेन्द्रियोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कुछ भी अन्तरकाल नहीं है।
६४६७. क्योंकि वहाँ पर यद्यपि उक्त प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर संक्रम होते हैं फिर भी उनके अन्तर करनेका कोई उपाय नहीं पाया जाता।
* सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके भुजगार और अल्पतरसंक्रामकका अन्तर काल कितना है?
६४६८. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है।
६४६६. क्योंकि परस्पर या अवस्थित संक्रमके द्वारा एक समयके लिए अन्तरको प्राप्त हुए भुजगार और अल्पतरसंक्रम फिर भी सम्भव हैं इसमें कोई विरोध नहीं पाया जाता।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल पन्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। १. 'यदेस' ता।