Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधबलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ * परवणा।
६६०३. सुगममेदमहियारपरामरसवक। सा वुण दुविहा परूवणा जहण्णुक्कस्सपदविसयभेदेण । तासि जहाकममोघणिदेसो ताव कीरदे
8 सव्वासिं पयडोणमुक्कस्सिया वड्डी हाणी अवठ्ठाणं च अस्थि ।
६६०४. कुदो ? सव्वेसिमेव कम्माणं जहाणिद्दिढविसए सव्वुक्कस्सवडि-हाणिअवट्ठाणसरूवेण पदेससंकमपवुत्तीए बाहाणुवलंभादो।
* एवं जहणणयस्स वि णेदव्वं ।
६६०५. तं जहा-सव्वेसि कम्माणं जहणिया वड्ढी हाणी अवट्ठाणं च अस्थि । कुदो ? सबजहण्णवड्डि-हाणि-अवट्ठाणसरूवेण संकमपवुत्तीए सव्वत्थ पडिसेहाभावादी । एवं सामण्णेण जहण्णुकस्सवड्डि-हाणि-अवट्ठाणाणमत्थित्तं पदुप्पाइय संपहि जेसिमवट्ठाणसंभवो णत्थि तेसि पुध णिद्द सो कीरदे
* पवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-इत्थि-णवुसयवेद-हस्स-रह-भरइसोगाणमवहाणं पत्थि।
६६०६. कुदो ? सव्वकालमेदेसि कम्माणमागमणिजराणं सरिसत्ताभावादो । एवमोघपरूषणा गया। जहासंभवमेत्थादेसपरूवणा विकायया । तदो परूवणा समत्ता ।
* प्ररूपणाका अधिकार है।
६६०३. अधिकारका परामर्श करनेवाला यह सूत्रवचन सुगम है। जघन्य पदविषयक प्ररूपणा और उत्कृष्ट पदविषयक प्ररूपणाके भेदसे वह प्ररूपणा दो प्रकारकी हे । उनका यथाक्रमसे ओघनिर्देश करते हैं
* सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान है।
६६०.४ क्योंकि सभी कर्मोंके यथानिर्दिष्ट विषयमें सर्वोत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान रूपसे प्रदेशसंक्रमकी प्रवृत्तिमें बाधा नहीं उपलब्ध होती।
* इसी प्रकार जघन्यका भी कथन जानना चाहिए।
६६०५. यथा-सभी कर्मोकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान है, क्योंकि सबसे जघन्य वृद्धि हानि और अवस्थानरूपसे संक्रमकी प्रवृत्ति होनेमें सर्वत्र प्रतिषेधका अभाव है। इस प्रकार सामान्यसे जघन्य और उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानके अस्तित्वका कथन कर अब जिनका अवस्थान सम्भव नहीं है उनका अलगसे निर्देश करते हैं
* किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोकका अवस्थान नहीं है।
६६०६. क्योंकि इन कोंकी सदा काल आगमन और निर्जरामें सदृशता नहीं उपलब्ध होती। इस प्रकार ओघप्ररूपणा समाप्त हुई। यहाँ पर यथासम्भव आदेश प्ररूपणा भी करनी चाहिए । इसके बाद प्ररूपणा समाप्त हुई।