Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा०५८] उत्तरपडिपदेससंकमे भुजगारो
३३५ छजहणणेण अंतोमुहुत्तं ।
४४५. तं कधं ? णिस्संतकम्मियमिच्छाइट्ठिणा सम्मत्तमुप्पाइदं तस्स बिदियसमयम्मि अवत्तव्यसंकमस्सांदी दिट्ठा । तदो अंतरिय उवसमसम्मत्तकालावसाणे सासणं पडिवजिय मिच्छत्ते पदिदस्स पढमसमए लद्धमंतरं कायव्यं ।
* उक्कस्ससेण उवड्डपोग्गलपरियडें ।
६४४६. तं जहा—अद्धपोग्गलपरियट्टादिसमए सम्मत्तुप्पायणाए वावदस्स बिदियसमए आदी दिट्ठा । तदो दीहतरेणंतरिय अंतोमुहुत्तसेसे संसारकाले सम्मत्तुप्पत्तीए परिणदस्स बिदियसमयम्मि लद्धमंतरं होई ।।
* अणंताणुबंधीणं भुजगार-अप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं ? ६४४७. सुगमं । .
® जहपणेण एयसमग्रो। ६४४८. भुजगारप्पदराणमणप्पिदपदेणेयसमयमंतरिदाणं तदुवलंभादो। * उकस्सेण बेछावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । * जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। ६४४५. शंका-वह कैसे ?
* समाधान-सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तासे रहित किसी एक मिथ्यादृष्टि जीवने सम्यक्त्वको उत्पन्न किया उसके दूसरे समयमें श्रवक्तव्य संक्रमका प्रारम्भ दिखाई दिया। उसके बाद उसका अन्तर करके उपशम सम्यक्त्वके कालके अन्तमें सासादनको प्राप्त होकर मिथ्यात्वमें जाकर उसके प्रथम समयमें पुनः उसका अवक्तव्य संक्रम किया। इस प्रकार अन्तमुहूर्तप्रमाण जघन्य अन्तर काल प्राप्त कर लेना चाहिए।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल उपापुद्गल परिवर्तन प्रमाण है।
६४४६. यथा-अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण कालके प्रथम समयमें सम्यक्त्वके उत्पन्न करनेमें लगे हुए जीवके उसके दूसरे समयमें अवक्तव्य संक्रमका प्रारम्भ दिखलाई दिया । उसके बाद दीर्घ काल तक अन्तर देकर संसारमें रहनेका काल अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर सम्यक्त्वके उत्पन्न करनेमें परिणत हुए जीवके दूसरे समयमें पुनः अवक्तव्य संक्रम होनेसे उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त काल प्रमाण प्राप्त होता है।
* अनन्तानुबन्धियोंके भुजगार और अन्पतर संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ६४४७. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है।
४४८. क्योंकि अनपित पदके द्वारा अन्तरको प्राप्त हुए भुजगार और अल्पतर संक्रमको जघन्य अन्तर एक समय उपलब्ध होता है।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो छयासठ सागर प्रमाण है।