Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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उत्तरपडिपदेससंकमे भुजगारो ॐ मायाए जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ।
लोहे जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ। ६३०३. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । एवमेइंदिएसु जहण्णप्पाबहुअं समत्तं । एदं चेव सव्ववियलिदिएसु पंचि०तिरिक्खमणुस-अपजत्तएसु वि विहासियव्वं, विसेसाभावादो । पंचिंदिएसु ओघभंगो । एवं जाव ।
___ एवं जहण्णपदेससंकमप्पाबहुअं समत्तं ।
__ तदो चउवोसमणिओगद्दाराणि समत्ताणि । * भुजगारस्स अट्ठपदं।
( ३०४. एत्तो पदेससंकमस्स भुजगारोकायव्यो; पत्तावसरत्तादो। तत्थ य ताब अट्ठपदं परूवइस्सामो त्ति जाणावणट्ठमेदं सुत्तं ।
* एपिंह पदेसे बहुदरगे संकामेदि त्ति उसकाविदे, अप्पदरसंकमावो एसो भुजगारसंकमो।
६३०५. एदस्स सुत्तस्स पदसंबंधो एवं कायव्यो। तं जहा—उसकाविदे अणंतरविदिक्कतसमए अप्पयरसंकमादो थोबयरपदेससंकमादो एण्हिं वट्टमाणसमए बहुदरगे बहुवयरसंखावच्छिण्णे कम्मपदेसे संकामेदि त्ति एसो एवं लक्खणो भुजगारसंकमो दट्टयो
* उससे मायासंज्वलनका जघन्य देशसंक्रम विशेष अधिक है । * उससे लोभसंज्वलनका जघन्य देशसंक्रम विशेष अधिक है।
६ ३०३. ये सूत्र सुगम हैं । इस प्रकार एकेन्द्रियोंमें जघन्य अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। इसे ही सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवोंमें समझ लेना चाहिए, क्योंकि कोई विशेषता नहीं है। पञ्चेन्द्रियोंमें ओघके समान भङ्ग है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
इस प्रकार जघन्य प्रदेश संक्रम अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इससे चौबीस अनुयोगद्वार समाप्त हुए।
भुजगार अनुयोगद्वार * अब भुजगार के अर्थपदको कहते हैं।
६३०४. इससे आगे प्रदेशसंक्रमका भुजगार करना चाहिए, क्योंकि उसका अवसर प्राप्त है । उसमें भी सर्व प्रथम अर्थ पदको बतलाते हैं । इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेके लिए यह सूत्र आया है।
* अनन्तर व्यतीत हुए समयमें हुए अल्पतर संक्रमसे वर्तमान समयमें बहुत प्रदेशका संक्रम करता है यह भुजगार संक्रम है।
६३०५. इस सूत्रका पदसम्बन्ध इस प्रकार करना चाहिए । यथा-'ओसक्काविदे' अर्थात् अनन्तर व्यतीत हुए समयमें 'अप्पयरसंकमादो' अर्थात् स्तोकतर प्रदेश संक्रमसे 'एण्हि' अर्थात् वर्तमान समर में 'बहुदरगे' अर्थात् बहुतर संख्यासे युक्त कर्म प्रदेशोंको संक्रमित करता है इसलिए
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