Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेससंक मे भुजगारो
३१५
भागवड्डीए भुजगार संकमो चेव होइ, तत्थ सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्तं गच्छमाणदव्वं पेक्खिऊण मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तमागच्छमाणदव्यस्सा संखेज्जगुणत्तदंसणादो त्ति भर्णताणमाइरियाणमहिप्पारण देसूण छावट्टिसागरोत्रममेत्तो सम्मामिच्छत्तप्पयरसंकमकालो होइ;. तत्थ सुत्ताविरोहो जाणिय वत्तव्यो ।
* अवत्तव्वसंकमो केवचिरं कालादो होदि ?
३७२. सुगमं ।
* जहण्णुक्कस्सेण एयसमत्र ।
९ ३७३. एदं पि सुगमं ।
*ताणुबंधीणं भुजगार संकामगो केवचिरं कालादो होदि ।
९ ३७४. सुगमं ।
* जहण्णेण एयसंमयो ।
§ ३७५. कुदो ? मिच्छइट्ठिस्स एयसमयं भुजगार संकमेण परिणमिय बिदियसमए अप्पदरमवदिभावं वा गयस्स तदुवलंभादो |
* उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ।
९ ३७६. तं जहा - थावरकायादो आगंतूण तसकाएसुप्पण्णस्स जाव पलिदोवमा
काल साधक छठ सागर प्रमाण प्राप्त हो गया । उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर विध्यातसंक्रम को प्राप्त हुए जीवके असंख्यात भागवृद्धि के द्वारा भुजगारसंक्रम ही होता है, क्योंकि वहाँ पर सम्यग्मिथ्यात्व में से सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले द्रव्यको देखते हुए मिथ्यात्वमेंसे सम्यग्मिथ्यात्वमें आनेवाला द्रव्य असंख्यातगुणा देखा जाता है ऐसा कथन करनेवाले आचार्यों के अभिप्रायानुसार सम्यग्मिथ्यात्त्रका अल्पतरसंक्रमकाल कुछ कम छयासठ सागरप्रमाण होता है सो यहाँ पर जिस प्रकार सूत्रसे विरोध हो ऐसा जानकर कथन करना चाहिए ।
* अवक्तव्य संक्रमका कितना काल है ?
९ ३७२. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है ।
६ ३७३. यह सूत्र भी सुगम है ।
* अनन्तानुबन्धियोंके भुजगारसंक्रामकका कितना काल है ।
९ ३७४. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य काल एक समय है ।
९ ३७५. क्योंकि जो मिथ्यादृष्टि जीव भुजगारसंक्रमरूपसे परिणमन करके दूसरे समय में अल्पतर या अवस्थित भावको प्राप्त हो गया है उसके उक्त काल उपलब्ध होता है ।
* उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।
§ ३७६. यथा— स्थावरकायमेंसे आकर त्रसकायिकों में उत्पन्न हुए जीवके पल्यके असंख्यातवें