Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
§ ३६६. सम्मामिच्छत्तादो वेदयसम्मत्तं मिच्छत्तं वा गंतूण तत्थ सव्त्रजहण्णंतोमुहुत्तमेत्तकालमप्पयरसंकमं कादृण पुणो सम्मामिच्छत्तमुवणमिय असंकामयभावेण परिणदम्मि तदुवलंभादो | अहवा सम्मामिच्छत्तादो वेदयसम्मत्तं गं तू तो मुहुत्तमप्पयरसंकमं करिय सव्वलहुं खवणाए अन्भुट्ठिदस्स अपुव्यकरणपढमसमए भुजगार संकमपारंभेण पयदजहण्णकालो वत्तव्वो ।
* एयसमयो वा ।
$ ३७०. एदस्स संभवविसयो उच्चदे । तं जहा -: - चरिमुव्वेल्लणकंडयं गुणसंकमेण संकामेतएण सम्मत्तमुप्पा इदं । तस्स पढमसमए विज्झादेणप्पयरसंकमो जादो । पुणो विदियसमए गुणसंकमपारंभेण भुजगारसंकमो जादो, लद्धो एयसमयमेत्तो सम्मामिच्छत्तप्पयरसंकमकालो । संपहि तदुकस कालणिद्देसकरणटुं सुत्तमोइण्णं ।
* उक्कस्सेण छावट्ठिसागरोवमाणि सादिरेयाणि ।
९ ३७१. तं जहा – अणादि यमिच्छाइ डिउवसम सम्मत्तमुप्पाइय गुणसंकमकाले वोलीणे विज्झादसंकमेणप्पयरपारंभ काढूण वेदयसम्मत्तं पडिवज्जिय अंतोमुहुत्तूण छाबडिसागरोबमाणि परिभमिय दंसणमोहक्खवणाए अन्भुट्ठिदो तस्सापुव्त्रकरणप्पढमसमए गुणसंकमपारंभेण अप्पयरसं कमस्साभावो जादो । एवं सादिरेयछावट्टिसागरोवममेत्तो सम्मामिच्छत्तप्पयर संकमकालो लद्धो होइ । उवसमसम्मत्तकालब्भंतरे विज्झादं पदिदस्स असंखेज्ज
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§ ३६६. क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वसे वेदक सम्यक्त्व या मिथ्यात्वको प्राप्त कर वहाँ पर सबसे जघन्य मुहूर्त काल तक अल्पतर संक्रमको करके पुनः सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होकर जो असंक्रामक भावको प्राप्त होता है उसके उक्त काल उपलब्ध होता है । अथवा सम्यग्मिथ्यात्व से वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त कर अन्तर्मुहूर्त काल तक अल्पतर संक्रम करके अतिशीघ्र क्षपणा के लिए उद्यत हुए जीवके अपूर्वकरणके प्रथम समयमें गुणसंक्रमका प्रारम्भ हो जानेसे प्रकृत जघन्य काल कहना चाहिए ।
* अथवा जघन्य काल एक समय है ।
§ ३७०. यह कहाँ पर सम्भव है इसे बतलाते हैं । यथा - अन्तिम उद्वेलना काण्डकको गुणसंक्रमके द्वारा संक्रमित करनेवाले जीवने सम्यक्त्वको उत्पन्न किया । उसके प्रथम समयमें विध्यात संक्रमके द्वारा अल्पतर संक्रम हुआ । इस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व के अल्पतर संक्रमका जघन्य काल एक समय प्राप्त हो गया। अब उसके उत्कृष्ट काल का निर्देश करनेके लिए आगेका सूत्र आया है
* उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर प्रमाण है ।
६ ३७९. यथा - एक अनादि मिध्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न करके गुण संक्रमके व्यतीत हो जाने पर विध्यात संक्रमके द्वारा अल्पतर संक्रमका प्रारम्भ करके तथा वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त हो अन्तर्मुहूर्त कम छयासठ सागर काल तक उसके साथ परिभ्रमण करके दर्शन मोहनी यकी क्षपणाके लिए उद्यत हुआ । उसके अपूर्वकरणके प्रथम समयमें गुणसंक्रमका प्रारम्भ हो जाने से अल्पतरसंक्रमका अभाव हो गया। इस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व के अल्पतरसंक्रमका उत्कृष्ट