Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
६ ३६८. तं जहा — पढमसम्मत्तं गेण्हमाणो पुत्रमेत्र अंतोमुत्तमत्थि त्ति इत्थिवेदस्स अप्पदरसंकर्म कादून सम्मत्तमुप्पाइय तदो वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय पढमछावमिप्पयर संकमेणापालिय तदवसाणे सम्मामिच्छत्तेणंतरिय पुणो वेदगसम्मत्तं घेत्तण बिदियछावहिअप्पयर संक्रममणुपालेमाणो अपूण तेत्तीस सागरोत्रममेत्तकालं देवेसु भमिय तदो पुत्रको डाउअम से सुवण्गो तत्थ गन्भादिअडस्साणमंतो मुहुत्त भहियाणमुवरि दंसणमोहणीयं खवि पुव्त्रकोडिजीविदावसाणे तेत्तीससागरोत्रमियदेवे सुववज्जिय तत्तो कमेण चुदो संतो पुणो त्रिपुत्र कोडाउअमरणुसेसुत्रवण्णो अंतोमुहुत्तावसेसे जीविदव्वए खत्रणाए अभुट्ठिदो तस्स धापयत्तकरणचरिमसमए पयदप्पयरकालपरिसमत्ती जादा । तदो देणपुत्रको डीहि सादिरेयवे छावट्टिसागरोत्रममेत्तो पयदुक्कस्सकालो लदो हो ।
* अवत्तव्वसंकमो केवचिरं कालादो ?
३६६. सुगमं ।
* जहणुक्कस्सेण एयसमत्रो ।
४०० सव्त्रोवसामणापडिवादपढमसमए चैव तदुवलंभादो । * एवु सयवेदस्स अप्पयरसंकमो केवचिरं कालादो ? ४०१. सुगममेदं पुच्छासुतं ।
३२०
९ ३८. यथा - प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेवाला कोई जीव अन्तर्मुहूतेकाल पहले स्त्रीवेदका अल्पतरसंक्रम करके और सम्यक्त्वको उत्पन्न करके उसके बाद वेदकसम्यक्त्वको उत्पन्न करके प्रथम छयासठ सागर काल तक अल्पतरसंक्रमको करते हुए उसके अन्त में सम्यग्भिथ्यात्यके द्वारा वेदकसम्यक्त्वका अन्तर करके इसके बार पुनः वेदक सम्यक्लको ग्रहण कर दूसरी बार छयासठ सागर काल तक अल्पतरसंक्रमको करते हुए आठ वर्ष कम तेतीस सागर काल देवों में व्यतीत कर उसके बाद पूर्वकोटि की आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । यहाँ पर गर्भ से लेकर आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त के बाद दर्शन मोहनीय की क्षपणा करके पूर्वकोटिप्रमाण जीवन के अन्त में तैंतीस सागरकी आयुवाले देवों में उत्पन्न होकर फिर वहाँ से क्रमसे च्युत होता हुआ फिर भी पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। वहाँ जीवन में अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर क्षण के लिए उद्य हुआ । उसके अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समयमें प्रकृत अतर संक्रमकी समाप्ति हो गई। इसलिए प्रकृत उत्कृष्ट काल कुछ कम दो पूर्वकोटि अधिक दो छयासठ सागरप्रमाण प्राप्त हुआ ।
* अवक्तव्य संक्रमका कितना काल है ?
६३६६. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ।
४०० क्योंकि सर्वोपशामना से गिरने के प्रथम समय में ही अवक्तव्य संक्रम उपलब्ध
होता है ।
* नपु ंसकवेदके अल्पतरसंक्रमका कितना काल है ? ४०१. यह पृच्छासूत्र सुगम है ।