Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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३२४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ णारयभंगो । इथिवेद-णवुस० भुज० संका० ओघं । अप्प० संका० जह• एयस० । उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । णवरि जोणिणो०-इत्थिवेद.. णस० अप्प० संका० जह० एयस० । उक्क० तिण्णि पनिदो० देसूणाणि।।
६४१२. पंचितिरिक्ख-अपज्ज० - मणुसअपज०-सम्म० - सम्मामि०-सत्तणोक० भुज० अप्प० संका० जह० एयस० । उक्क० अंतोमु० । सोलसक०-भय०-दुगुछा० भुज० संका० जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमु० । अबढि संका० जह० एयस० । उक्क० संखेजा समया । अप्प० संका० भुज० भंगो।।
४१३. मणुसतिए पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो। णवरि जासिं अवत्त० संका० तासि जहण्णुक्क० । णवरि मणुस-मणुसपज०-इत्थिवे.--.स. अप्प० संका० बह०
है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके भुजगार संक्रामकका भङ्ग ओघके समान है । अल्पतर संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन पल्य है । इसी प्रकार पश्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि योनिनी तिर्यञ्चोंमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके अल्पतर संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कछ कम तीन पल्य है
विशेषार्थ-तिर्यश्चोंमें और पञ्चे न्द्रिय तिर्यश्वत्रिकमें वेदकसन्यक्त्वका काल कुछ कम तीन पल्य है, इसलिए इनमें मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर संक्रामकका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है। इनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अल्पतर संक्रामकका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य कहनेका कारण यह है कि जिन तिर्यञ्चोंने पहले अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अल्पतर संक्रम किया उसके बाद वे तीन पल्यकी आयुवाले तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होकर और वेदक सम्यक्त्वको उत्पन्न कर जीवन भर उनका अल्पतर संक्रम करते रहे उनके इनके अल्पतर संक्रमका साधिक तीन पल्य उत्कृष्ट काल बन जाता है। इनमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके अल्पतर संक्रामकका उत्कृष्ट काल जो तीन पल्य कहा है सो वह क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंकी अपेक्षासे घटित कर लेना चाहिए । मात्र योनिनी तिर्यञ्चोंमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं उत्पन्न होते, इसलिए उनमें उक्त काल कुछ कम तीन पल्य प्राप्त होनेसे उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है, क्योंकि उसका व्याख्यान ओघ प्ररूपणाके समय विशद रूपसे कर आये हैं।
६४१२. पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व और सात नोकषायोंके भजगार और अल्पतर संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके भुजगार संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अल्पतर संक्रामकका भङ्ग भुजगारके समान है।
विशेषार्थ-उक्त मार्गणाओंकी एक जीवकी कायस्थिति ही अन्तर्मुहूत प्रमाण है, इसलिए यहाँ पर उसे ध्यानमें रखकर कालका निरूपण किया। शेष विचार ओघ प्ररूपणाको देखकर कर लेना चाहिए।
६४१३. मनुष्यत्रिकमें पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चत्रिकके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें जिन प्रकृतियोंके प्रवक्तव्यसंक्रामक होते हैं उनका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है।