Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
३२८ जयधवलासहिदेकसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६ ४२४. कुदो १ भुजगार-अप्पदराणं जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो, अवढि० जह० एगस०, उक० संखेजा समया इच्चेदेण भेदाभावादो।
* सत्तणोकसायाणं ओघ-हस्स-रवीणं भंगो।
६४२५. कुदो ? भुज०अप्प० संकामयाणं जह एयसमओ, उक्क० अंतोमु० इच्चेदेण ततो भेदाणुवलंभादो।
* एयजीवेण अंतरं।
६४२६. एयजीवसंबंधिकालविहासणाणतरमेयजीवविसेसिदमंतरमेतो वत्तइस्सामो त्ति अहियारसंभालणसुत्तमेदं । तस्स य दुविहो णिदेसो; ओधादेसमेएण । तत्थोषणिदेस ताव कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ ।
* मिच्छत्तस्सं भुजगारसंकामयंतर केवचिरं कालादो होदि ? ६४२७. सुगमं ।
ॐ जहणणेण एयसमो वा दुसमओ वा; एवं पिरंतरं जाव तिसम. ऊणावलिया।
६४२८. तं जहा-पुव्वुप्पण्णसम्मत-मिच्छाइद्विणा वेदयसम्मत्ते पडिवण्णे तस्स पढमसमए अत्तव्वसंकमादो विदियसमयम्मि भुजगारसंकमे जादे आदिवार तदो
४२४. क्योंकि ओघसे अप्रत्यारव्यानावरणके भुजगार और अल्पतर संक्रमका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण तथा अवस्थित संक्रमका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है । उससे इसमें कोई भेद नहीं है ।
* सात नोकषायोंके कालका भङ्ग ओघसे हास्य-रतिके समान है।
६४२५. क्योंकि ओघसे हास्य-रतिके भुजगार और अल्पतर संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टः काल अन्तमुहूर्त बतला आये हैं। उससे इसमें कोई भेद नहीं उपलब्ध होता।
* अब एक जीव को अपेक्षा अन्तरकालका अधिकार है।
६४२६. एक जीव सम्बन्धी कालका व्याख्यान करनेके बाद आगे एक जीव सम्बन्धी अन्तरकालको बतलाते हैं । इस प्रकार यह सूत्र अधिकारकी सम्हाल करता है। उसका निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और आदेश । उनमेंसे सर्व प्रथम ओघ प्ररूपणाका निर्देश करते हुए आगेका
* मिथ्यात्वके भुजगार संक्रामकका अन्तर काल कितना है ? ६४२७. यह सूत्र सुगम है।
* जघन्य काल एक समय है, दो समय है । इस प्रकार निरन्तर क्रमसे तीन समय कम एक आवलि प्रमाण है।
६४२८. यथा- पहले उत्पन्न हुए सम्यक्त्वसे मिथ्या दृष्टि होकर वेदक सम्यक्त्वके प्राप्त करने पर उसके प्रथम समयमें हुए अवक्तव्यसंक्रमके बाद दूसरे समयमें भुजगार संक्रमके
१. श्रादीदिट्टा ता.।
-~
-~
~-
~
सूत्र कहते हैं