Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
९ ४१६. एवं चदुसु गद्दीसु कालविणिण्णयं काढूण पुणो सेसमग्गणाणं देसा मासयभावेणि दियमग्गणावयवमूदेइ दिएसु पयदकाल विहासणमुत्तरं सुत्तपबंधमाह । * एइ दिएसु सव्वेसिं कम्माणमवत्तव्वसंकमो णत्थि |
६४१७. कुदो ? गुणंतरपडिवत्तिपडिवादणिबंधणस्स सव्वेसिमवत्तव्त्रसंकमस्सेई दिए असंभवादो । तदो तब्धिसयकालपरूवणं मोत्तण सेसपदविसयमेत्र कालणिद्द सं सामोति जाणादिमेण सुत्तेण । तत्थ य मिच्छत्तसंकमो एइ दिएसु णत्थि चेत्रेति कयणिच्छयो सेसपयडीणमेत्र भुजगारादिपदविसयकालानुसारेण विहाणदुमुत्तरं २
धमावे |
* सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार संकामो केवचिंर कालादो
होदि ?
४१८. सुगमं ।
* जहणणेण एयसमत्रो ।
अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका सम्यग्दृष्टिके गुणसंक्रमके समय भुजगारसंक्रम होता है, और गुणसंक्रमका काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इनमें उक्त प्रकृतियोंके भजगार संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । यहाँ पर इनके अल्पतर संक्रामकोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है यह स्पष्ट ही है । शेष कथन सुगम है ।
६ ४१६. इसी प्रकार चारों गतियोंमें कालका निर्णय करके पुनः शेष मार्गणाओंके देशामर्षकरूपसे इन्द्रिय मार्ग के अवयवभूत एकेन्द्रियों में प्रकृत कालका व्याख्यान करने के लिए आगे के सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
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* एकेन्द्रियोंमें सब कर्मों का अवक्तव्य संक्रम नहीं है ।
४१७. क्योंकि अन्य गुणस्थानको प्राप्त होकर वहाँसे गिरनेके कारण होनेवाला सब कर्मों का अवक्तव्य संक्रम एकेन्द्रियोंमें असम्भव है । इसलिए तद्विषयककालकी प्ररूपणा छोड़कर शेष पदविषयकालका ही यहाँ पर निर्देश करते हैं इस प्रकार इस सूत्र द्वारा इस बातका ज्ञान कराया गया है । उसमें भी एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्वका संक्रम नहीं ही होता ऐसा निश्चय करके शेष प्रकृतियोंके ही भुजगार आदि पदोंके काल के अनुसार व्याख्यान करनेके लिए आगे के सूत्र प्रबन्धका आलोडन करते है
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार संक्रामकका कितना काल है ? ४१. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य काल एक समय है ।
१. र ता० । २. र ता० ।