Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसा पाहुडे
[ बँधगो ६
६३१६. पुव्वत्तावलियमेत्तकालब्भंतरे सव्वत्थ भुजगारसंकमो चैवेति णावहारणमिद कायबं; किंतु आगमणिज्जरावसेण जहगणेणेयसमयमुकस्सेण समयुणावलियमेत्तकालं, दम्म विer भुजगार संकमो संभवदित्ति वृत्तं होइ ।
* एवं तिसु कालेसु मिच्छत्तस्स भुजगार संकामगो ।
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३२०. एवमेदे चैव तरणिद्दिट्ठेसु तिसु उद्देसेसु मिच्छत्तस्स भुजगारसंकामगो हो, णाणत् ति भणिदं होइ । संपहि एदेसिं चेव तिन्हं भुजगारसंकमविसयाणमुवसंहारमुण फुडीकरणमुत्तरपबंधमाह
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* तं जहा । ३२१. सुगमं ।
* उवसामग-दुसमयसम्माइडिमादिं काढूण जाव गुणसंकमो ति ताव पिरंतरं भुजगार संकमो । खवगस्स वा जाव गुणसंकमेण खविज्जदि मिच्छुतं तावणिरंतरं भुजगार संकमो । पुव्वुप्पादिदेण वा सम्मत्तेण जो सम्मत्तं पडिवज्जदि तं दुसमयसम्माइट्टिमादि काढूण जाव आवलियसम्माट्ठि ति एत्थ जत्थ वा तत्थ वा जहणणेण एयसमयं, उक्कस्सेण आव
६३१६. पूर्वोक्त आवलिमात्र कालके भीतर सर्वत्र भुजगारसंक्रम होता ही है ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिए किन्तु होनेवाली आय और निर्जरा के कारण जघन्यसे एक समय तक और उत्कृष्टसे एक समय कम एक आवलि तक इस कालके भीतर भुजगारसंक्रम सम्भव है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* इस प्रकार तीन कालोंमें जीव मिथ्यात्वका भुजगार संक्रामक है ।
९ ३२०. इस प्रकार पहले बतलाये गये इन्हीं तीन स्थानोंमें जीव मिथ्यात्वका भुजगार संक्रामक अन्यत्र नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इन्हीं तीन भुजगारसंक्रम विषयोंका उपसंहार द्वारा स्पष्ट करने के लिए आगे सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* यथा
३२१. यह सूत्र सुगम है ।
* उपशामक सम्यग्दृष्टिके द्वितीय समयसे लेकर गुणस क्रमके अन्तिम समय तक निरन्तर भुजगार संक्रम होता है। अथवा क्षपकके जब तक गुणसंक्रमके द्वारा मिथ्यात्वकी चंपणा होती है तब तक निरन्तर भुजगारसंक्रम होता है । अथवा पहले उत्पन्न किये गये सम्यक्त्वके साथ जो सम्यक्त्वको प्राप्त होता है उस सम्यग्दृष्टिके दूसरे सययसे लेकर सम्यग्दृष्टि एक आवलिकाल होने तक इस कालके भीतर जहाँ-कहीं जघन्यसे एक समय