Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
अधावत्तसंक्रमेण भजगार संकमो होइ तहा उव्वेल्लमाण मिच्छाइट्टिणा वेदयसम्मत्ते गहिदे तस्स पढमसमए वि विज्झादसंकमेण भुजगार संकमसंभवो वत्तव्वो ।
* तव्वदिरित्तो जो संकागो सो अप्पदरसंकागो वा अवत्तसंकामगो वा ।
९ ३३३. पुव्वुत्त भुजगारसंकामणादो अण्णो जो संकामगो सो जहासंभवमप्पयरकामगो वा अत्तव्त्रसंकामगो वा होइ; तत्थ पयारंतरासंभवादो ।
* सोलसकसायाणं भुजगारसंकामगो अप्पदरसंकामगो अवट्ठिदसंकामगो अवन्तव्वसंकामगो को होदि ?
३०२
९ ३३४. सुगममेदं पुच्छावक्कं ।
* अण्णदरो ।
६ ३३५. अनंताणुबंधीणं ताव भुजगार संकामगो अष्णदरो मिच्छाइट्ठी सम्माइट्ठी वा होइ, मिच्छाइट्ठिम्मि णिरंतबंधीणं तेसिं तदविरोहा दो । सम्माइडम्मि वि गुणसंकमपरिणदम्मि सम्मत्तग्गहणपढमावलियाए वा विदियादिसमएसु तदुवलद्धीदो । अप्पयरसंक्रामओ वि अण्णयरो मिच्छाइट्ठी सम्माइट्ठी वा होइ; उहयत्थ व अप्पयरसंभवे विरोहावभादो । तहा दामो वि अण्णदरो मिच्छाइट्ठी सास सम्माट्ठी वा होइ; तत्तो अण्णत्थ तदणुवलंभादो । मिच्छाइट्ठिस्स सम्मत्तसमयमें अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा भुजगारसंक्रम होता है । उसी प्रकार उद्वेलना करनेवाले मिथ्यादृष्टिके वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त होने पर उसके प्रथम समय में भी विध्यातसंक्रम के द्वारा भुजगार संक्रम सम्भव है ऐसा कहना चाहिए ।
* उससे भिन्न जो संक्रामक है वह या तो अल्पतर संक्रामक है या अवक्तव्य संक्रामक है।
९ ३३३. पूर्वोक्त भुजगारसंक्रामकसे अन्य जो संक्रामक है वह यथासम्भव या तो अल्पतर संक्रामक है या वक्तव्यसंक्रामक है, क्योंकि वहाँ अन्य प्रकार सम्भव नहीं है ।
* सोलह कषायोंका भुजगारसंक्रामक, अल्पतरसंक्रामक, अवस्थितसंक्रामक और अवक्तव्यसंक्रामक कौन है ?
९ ३३४. यह पृच्छासूत्र सुगम है ।
* अन्यतर जीव है ।
६ ३३५. अनन्तानुबन्धियोंका तो भुजगार संक्रामक अन्यतर मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि जीव है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीवके निरन्तर बँधनेवाली उक्त प्रकृतियोंका भुजगार संक्रम होनेमें कोई विरोध नहीं आता । सम्यग्दृष्टि जीवके भी गुणसंकम रूपसे परिणत होने पर या सम्यक्त्वको ग्रहण करने की प्रथम वलि द्वितीयादि समयोंमें भुजगार संक्रमकी उपलब्धि होती है। इनका श्रल्पतरसंक्रामक भी अन्यतर मिध्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि जीव है, क्योंकि दोनों ही स्थलोंमें अल्पतरसंक्रमके होने में कोई विरोध नहीं पाया जाता। तथा अवस्थित संक्रामक भी मिथ्यादृष्टि या सासादन "सम्यग्दृष्टि जीव है, क्योंकि इन दो स्थानोंके सिवा अन्यत्र उसकी उपलब्धि नहीं होती ।