Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
उत्तरपयडिपदेससकमे भुजगारो
३०३ मुवगयस्स पढमावलियोए आयव्ययाणं सरिसत्तावलंबणेण मिच्छत्तस्सेव तेसिमवट्ठाणसंभवो किण्ण होइ ? ण, तत्थ मिच्छाइट्ठि चरिमावलियाए पडिच्छिददव्ववसेण भुजगारसंकमं मोत्तणावट्ठाणासंभवादो। संपहि अणंताणुबंधीणमवत्तव्यसंकामगो अण्णदरो ति वुत्ते विसंजोयणापुत्रसंजोगपढमसमयणकबंधमावलियादिक्कतं संकामेमाणयस्स मिच्छाइट्ठिस्स सासणसम्माइद्विस्स वा गहणं कायव्वं । एवं चेव सेसकसायाणं पि भुजगारादिपदाणमण्णदरसामिताहिसंबंधो अणुगंतव्यो । णवरि तेसिमवत्तव्यसंकामगो अण्णदरो सधोवसामणापडिवादपढमसमए वट्टमाणगो सम्माइट्ठो चे होइ जाण्णो ति वत्तव्यं । अण्णदरणिद्द सेण वि ओगाहणादि विसेसपडिसेहो दट्टव्यो ।
* एवं पुरिसवेद-भय-दुगुंछाणं ।
६३३६. कुदो ? भुजगारादिपदाणमण्णदरसामि पडि पुचिल्लसामित्तादो विसेसाभावादो। पुरिसवेदावद्विदसंकमसामित्तगओ को वि विसेससंभवो अस्थि ति तण्णिद्द सकरणट्ठमुत्तरं सुत्तमाह ।
ॐ वरि पुरिसवेद-अवहिदसंकामगो णियमा सम्माइट्ठी । ३३७. कुदो ? सम्माइट्ठीदो अण्णत्थ पुरिसवेदस्स णिरंतरबंधित्ताभावादो। ण च
शंका-जो मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वको प्राप्त होता है उसकी प्रथम आवलिमें आय और व्ययकी समानताका अवलम्बन करनेसे मिथ्यात्वके समान अनन्तानुबन्धियोंका अवस्थान क्यों सम्भव नहीं है ?
समाधान नहीं, क्योंकि सम्यग्दृष्टिकी प्रथम आवलिमें मिथ्यादृष्टिकी अन्तिम श्रावलिके द्रव्यके संक्रमित होनेके कारण वहाँ भजगारसंक्रमको छोड़कर अवस्थानसंक्रम सम्भव नहीं है ।
अब अनन्तानुबन्धियोंका अवक्तव्यसंक्रामक जीव अन्यतर होता है ऐसा करने पर विसंयोजना पूर्वक संयोगके प्रथम समयमें हुए नवकबन्धको बन्धावलिके बाद संक्रमण करनेवाले मिथ्यादृष्टि या सासादन सम्यग्दृष्टिका ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार शेष कषायोंके भी भुज
दिपदोंका अन्यतर जीव स्वामी है उसका सम्बन्ध समझ लेना चाहिए। इतनी विशेषता है इनका प्रवक्तव्यसंक्रामक अन्यतर सर्वोपशामनासे गिरनेके प्रथम समयमें विद्यमान सम्यग्दृष्टि जीव ही होता है, अन्य जीव नहीं ऐसा यहाँ पर कथन करना चाहिए । सूत्रमें अन्यतर पदका निर्देश करनेसे अवगाहना आदि विशेषका निषेध जान लेना चाहिए।
* इसी प्रकार पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका स्वामित्व जानना चाहिए।
६३३६. क्योंकि भुजगार आदि पदोंके अन्यतर जीवके स्वामी होनेकी अपेक्षा पहले कहे गये स्वामित्वसे इसमें कोई विशेषता नहीं है। मात्र पुरुषवेदके अवस्थित संक्रमके स्वामित्वमें कुछ विशेषता सम्भव है, इसलिए उसका निर्देश करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
___ * इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदका अवस्थित संक्रामक नियमसे सम्यग्दृष्टि जीव है।
६३३७. क्योंकि सम्यग्दृष्टिके सिवा अन्यत्र पुरुषवेदका निरन्तर बन्ध नहीं होता। और