Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे अप्पाबहुअं
२७७ जहण्णसामित्तं जादमेदस्स पुण अधापवत्तभागहारेण विणा कम्मद्विदिजहण्णसंचयादो उक्कड्डिददव्वस्स सादिरेयबेछावद्विसागरोवमाणमधट्टिदिगालणाए जहण्णभावो संजादो तेण कारणेणाणताणुबंधिलोभजहण्णपदेससंकमादो मिच्छतजहण्णपदेससंकमो असंखेज्जगुणो णेदं घडदे, मिच्छत्तस्सेवाणताणुबंधीणं बेछा वहिसागरोवमबहिन्भूदसागरोवमपुधत्तमेत्तकालगालणाभावादो। ण, सागरोवमपुधत्तकालपडिबद्धण्णोण्णभत्थरासीए अधापवत्तभागहारादो असंखेज्जगुणहीणत्तावलंबणेण पयदप्पाबहुअसमत्थाणं वि जुत्तिमंतयं । उव्वेल्लणकालभंतरणाणागुणहाणिसलागण्णोण्णब्भत्थरासीदो वि असंखेजगुणहीणस्स तस्स सागरोवमपुधत्तपडिबद्धण्णोण्णब्भत्थरासीदो असंखेज्जगुणतविरोहादो। तम्हा जहावुत्तेण णाएण हेवरि णिवदेयव्यमेदेणप्पाबहुएणे त्ति ?ण एस दोसो, अणंताणुबंधीणं मिच्छत्तभंगेण सागरोवमपुधत्तं गालिय विसंजोयणाए अब्भुट्ठिदम्मि जहण्णसामित्तावलंबणादो। ण सागरोवमपुधत्तपरिब्भमणटुं बेछावट्ठीणमवसाणे मिच्छत्तभुवणमंतस्स सेसकसाएहितो अधापवत्तसंकमेण बहुदव्यपडिच्छणमेत्थासंकणिज्ज; तस्स वयाणुसारित्तब्भुवगमादो । ण सामित्तसुत्तेण सह विरोहो विः तत्थ सागरोवमपुधत्तणिदेसाभावे वि एदम्हादो चेव तदत्थित्तसमत्थणादो। आश्रयसे दो छय सठ सागर काल तक गलने पर जघन्य स्वामित्व प्राप्त हुआ है। परन्तु इसका अधःप्रवृत्त भागहारके बिना कर्मस्थितिके भीतर हुए जघन्यसंचयमेंसे उत्कर्षणको प्राप्त हुए द्रव्यको साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण काल तक अधःस्थितिके द्वारा गलाने पर जघन्यपना प्राप्त हुआ है। इस कारण अनन्तानुबन्धीलोभके जघन्य प्रदेशसंक्रमसे मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है।
शंका-यह अल्पबहुत्व घटित नहीं होता, क्योंकि मिथ्यात्वके समान अनन्तानुबन्धियोंका दो छयासठसागरके बाहर सागरपृथक्त्व काल तक गलन नहीं होता ? यदि सागरपृथक्त्वकालसे सम्बन्ध रखनेवाली अन्योन्याभ्यस्त राशि अधःप्रवृत्तभागहारसे असंख्यातगुणी हीन है इस बातका अवलम्बन करनेसे प्रकृत अल्पबहुत्वका समर्थन किया जाय सो ऐसा करना भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि उद्वेलनाकालके भीतर प्राप्त हुई नानागुणहानियोंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे भी असंख्यातगुणेहीन उसके सागरपथक्त्वकालसे प्रतिबद्ध अन्योन्याभ्यस्त राशिसे असंख्यातगुणे होनेका विरोध है । इसलिए यथोक्त न्यायके अनुसार इस अल्पबहुत्वको नीचे-ऊपर निक्षित करना चाहिए ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्वके समान सागरपृथक्त्व काल तक गलाकर अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजनाके लिए उद्यत होने पर जघन्य स्वामित्वका अवलम्बन किया है । यदि कोई ऐसी आशंका करे कि सागरपृथक्त्व काल तक परिभ्रमण करनेके लिए दो छयासठ सागर कालके अन्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त हुए जीवके शेष कषायोंमें से अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा बहत दव्य संक्रमित हो जाता है सो यहाँ पर ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि आयको व्ययके अनुसार स्वीकार किया है। इससे स्वामित्व सूत्रके साथ विरोध आता है यह कहना भी ठीक नहीं है. क्योंकि स्वामित्व सूत्रमें यद्यपि सागर पृथक्त्वका निर्देश नहीं है तो भी इससे ही उस के अस्तित्वका समर्थन होता है।