Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा०५८
उत्तरपडिपदेससंकमे अप्पाबहुश्र
२६५ ६२०४. भावो सव्वत्थ ओदइओ भावो। * अप्पाषहुध । ६ २०५. सुगममेदमहियारसंभालण वक्त । * सव्वत्थोवो समत्ते उकस्सपदेससंकमो। (२०६. कुदो ? सम्मत्तदव्वे अधापवत्तभागहारेण खंडिदे तत्थेयखंडपमाणत्तादो।
* अपच्चक्खाणमाणे उकस्सो पदेससंकमो असंखेज्जगुणो ।
६२०७. कुदो ? मिच्छत्तसयलदव्वादो आवलियाए असंखेज्जभागपडिभागेण परिहीणदव्यं घेत्तूण सव्वसंकमेणेदस्सुक्कस्ससामित्तविहाणादो। एत्थ गुणगारो गुणसंकममागहारपदुप्पण्णअधापवत्तभागहारमेत्तो। .
* कोहे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ।
६ २०८. कुदो ? दोण्हमेदेसि सामित्त भेदाभावे वि पयडिविसेसमेत्तेण तत्तो एदस्साहियभावोवलद्धीदो।
ॐ मायाए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहित्रो। * लोभे उक्कस्संपदेससंकमो विसेसाहिओ। ॐ पञ्चक्खाणमाणे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहियो। * कोहे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ६२०४. भाव सर्वत्र औदयिक भाव है । * अल्पबहुत्वका अधिकार है। ६ २०५. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्रवचन सुगम है । * सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम सबसे स्तोक है।
६ २०६. क्योंकि सम्यक्त्वके द्रव्यको अधःप्रवृत्त भागहारसे भाजित करने पर वह उसमेंसे एक भागप्रमाण है।
* उससे अप्रत्याख्यानमानका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है।
६२०७. क्योंकि मिथ्यात्वके समस्त द्रन्यसे श्रावलिके असंख्यातवें भागरूप प्रतिभागसे हीन द्रव्यको ग्रहण कर सर्वसंक्रमके आश्रयसे इसके उत्कृष्ट स्वामित्वका विधान किया गया है।
* उससे अप्रत्याख्यान क्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है।
६ २०८. क्योंकि इन दोनोंके स्वामीमें भेद नहीं होने पर भी प्रकृतिविशेषके कारण उसमें इसका अधिकपना उपलब्ध होता है।
* उससे अप्रत्याख्यानमायाका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अप्रत्याख्यानलोभका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे प्रत्याख्यानमानका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे प्रत्याख्यानक्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। ३४