Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे पदणिक्खेवे सामित्त
१३३ भुवगमादो। एवं च संभवो होइ ति कयणिच्छयो पयदजहण्णसामित्तविहाणमेत्येव जुत्तं पेच्छमाणो तण्णिद्धारणट्ठमुत्तरसुत्त भणइ
तदो सव्वत्थोवाणुभागे धादिजमाणे घादिदे तस्स जहणिया हाणी।
६४८८. जदो एस संभवो तदो तस्स अंतोमुहुत्तसंजुत्तमिच्छाइद्विस्स सत्थाणविसोहिणिबंधणखंडयघादपरिणदस्स जहणिया हाणी दट्टया ति सुत्तत्थसंबंधो। एत्थ सव्वत्थोवाणुभागे घादिज्जमाणे घादिदे त्ति वुत्ते छबिहाए हाणीए वि खंडयघादसंभवे जहण्णसामित्ताविरोहेणाणंतभागहाणीए खंडयघादेण परिणदो ति घेत्तव्यं ।
* तस्सेव से काले जहएणयमवहाणं ।
६४८६. तस्यैवानंतरनिर्दिष्टहानिसंक्रमस्वामिनः तदनंतरसमये जघन्यकमवस्थानमिति यावत् ।
* कोहसंजलणस्स जहरिणया वड्डी मिच्छत्तभंगो। ६४६०. ण एत्थ किंचि बोत्तव्यमस्थि,मिच्छत्तजहण्गवड्डिसामित्तसुत्तेणेव गयत्थादो ।
जहणिणया हाणी कस्स ? ६४६१. सुगमं ।
है। ऐसा सम्भव है ऐसा निश्चय करने के बाद प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विधान यहीं पर युक्त है ऐसा समझते हुए उसका निर्धारण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* अनन्तर सबसे स्तोक घाते जानेवाले अनुभागके घातित होने पर वह जघन्य हानिका स्वामी है।
६४८८. यतः ऐसा सम्भव है अतः अन्तर्मुहूर्त काल तक संयुक्त हुए तथा स्वस्थान विशुद्धि निमित्तक काण्डकघातरूपसे परिणत हुए उस मिथ्यादृष्टि जीवके जघन्य हानि जाननी चाहिए इस प्रकार सूत्रार्थका सम्बन्ध है । यहाँ पर सूत्र में 'सवत्थोवाणुभागे घादिजमाणे घादिदे' ऐसा कहने पर यद्यपि छह प्रकारकी हानि द्वारा काण्डकयात सम्भव है रो भी जवन्य स्वामित्वकी अविरोधिनी अनन्तभागहानिके द्वारा होनेवाले काण्डकबातरूपसे परिणत हुआ ऐसा ग्रहण करना चाहिए।
* तथा वही अनन्तर समयमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है ।
६४८६. जो अनन्तर हानिसंक्रमका स्वामी कह आये हैं उसीके तदनन्तर समयमें जघन्य अवस्थान होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* क्रोधसंज्वलनकी जघन्य वृद्धिके स्वामीका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है।
६४६०. यहाँ पर फुछ वक्तव्य नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धिके स्वामित्वका कथन करनेवाले सूत्रसे ही यह सूत्र गतार्थ हो जाता है।
* उसकी जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? ६४६१. यह सूत्र सुगम है।