Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडणुभागसंकमे वड्डी अप्पा बहु
९ ५५२. कुदो ? एगकंडयविसयत्तादो ।
* असंखेज भागहाणिसंकामया असंखेज्जगुणा ।
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४५३. चरिमुव्वंकडाणादो पहुडि अनंतभागहा णिअद्ध ( णमेगकंडयमेत्तं चेत्र होदि । देसिं पुण तारिसाणि अद्धाणाणि रूवाहियकंडयमेत्ताणि हवंति, तदो तव्त्रिसयादो पयदविसयो असंखेज्जगुणोति सिद्धमेदेसि तत्तो असंखेजगुणत्तं ।
* संखेज्जभागहाणिसंकामया संखेज्जगुणा ।
६५५४. तं जहा — वाहिय अनंतभागहाणि - असंखेज्जभागह। णिअद्वाणपमाणेण एगं संखेञ्जभागहाणिअद्धाणं कादूणेवंविहाणि दोणि तिष्णि चत्तारि ति गणिमाणे उक्कस्ससंखेज्जयस्स सादिरेयद्धमेत्ताणि अद्धाणाणि घेत्तण- संखेज भागहाणीए बिसओ होइ, सैनियमेत्तमद्धाणं गंतूण तत्थ दुगुणहाणीए समुप्पत्तिदंसणा दो । तदो विसयाणुसारेणुकस्ससंखेज्जयस्स सादिरेयद्धमेत्तो गुणगारो तप्पा ओग्गसंखेजरूवमेतो वा ।
* संखेज्जगुणहाणिसंकामया संखेज्जगुणा ।
९ ५५५. तं कथं ९ संखेज्जभागहाणिसंकामएहिं लंद्वद्वाणपमाणेणेयमद्वाणं काढूण तारिसाणि जहण्णपरित्तासंखेज्जयस्स रूवणद्धच्छेदणयमेत्ताणि जाव गच्छति ताव संखेज्जगुणहाणिविसओ चैत्र, तत्तो 'पहुडि असंखेजगुणहाणिसमुप्पत्ती दो । तदो एत्थ वि विसयानुसारेण रूवूणजहण्णपरित्तासंखेज्ञछेदणयमेत्तो तप्पा ओग्गसंखेजरूत्रमेत्तो वा गुणगारो ।
९५५२. क्योंकि ये एक काण्डकको विषय करते हैं ।
* उनसे असंख्यात भागहानिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
६५५३ . क्योंकि अन्तिम ऊर्वकस्थानसे लेकर अनन्तभागहानिका ध्यान एक काण्डकप्रमाण ही होता है । परन्तु इनके वैसे अध्वान एक अधिक काण्डकप्रमाण होते हैं, इसलिए उसके विषयसे प्रकृत विषय असंख्यातगुणा है । इस कारण इनका उनसे असंख्यातगुणत्व सिद्ध है ।
* उनसे संख्यातभागहानिके संक्रामक जीब संख्यातगुणे हैं ।
§ ५५४. यथा – एक अधिक अनन्तभागहानि और असंख्यात भागहानिके अध्वाप्रमाण एक संख्यातभागहानि ध्यानको करके इस प्रकार के दो, तीन, चार इत्यादि क्रमसे गिनने पर उत्कृष्ट संख्यातके साधिक अर्धमात्र अध्वानोंको ग्रहण कर संख्यातभागहानिका विषय होता है, क्योंकि तत्प्रमाण अध्वान जाकर वहाँ पर द्विगुणहानिकी उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए विषय के अनुसार उत्कृष्ट संख्यातका साधिक अर्धभागप्रमाण अथवा तत्प्रायोग्य संख्यात अंक प्रमाण गुणकार होता है । * उनसे संख्यातगुणहानिके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं ।
§ ५५५. क्योंकि संख्यातभागहानि के संक्रामकोंके द्वारा प्राप्त हुए अध्यानके प्रमाणसे एक अध्वानको करके वैसे अध्यान जब तक जघन्य परीता संख्यातके एक कम अर्धच्छेदप्रमाण हो जाते हैं तब तक संख्यातगुणहानिका ही विषय रहता है, क्योंकि वहाँसे लेकर असंख्यातगुणहानिकी उत्पत्ति होती है । इसलिए यहाँ पर भी विषय के अनुसार एक कम जघन्य परीता संख्यातके अर्धच्छेद प्रमाण अथवा तत्प्रायोग्य संख्यात प्रमाण गुणकार होता है ।