Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ धगो ६
९ १४. संपहि गुणसंकमस्स लक्खणं बुच्चदे । तं जहा – समयं पडि असंखेज्जगुणाए सेटीए जो पदेससंकमो सो गुणसंकमो ति भण्णदे । तं जहा - अपुव्त्रकरणपढमसमयप्पहुडि दंसणमोहक्खवणाए चरित्तमोहक्खवणाए उवसमसेढिम्मि अनंताणबंधिविसंजोयणाए सम्मत्तुप्पायणाए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुव्वेल्लणचरिमखंडए च गुणसंकमो होइ । एदस्स बिभागहारो पलिदो ० असंखे० भागो होंतो वि अधापवत्तभागहारादो असंखे ० गुणहीणो । १५. संपहि सव्वसंकमस्स सरूवं बुच्चदे । तं जहा - सव्वस्सेव पदेसग्गस्स जो कमो सो सव्त्रसंकमो त्ति भण्णदे । सो कत्थ होइ ? उब्वेल्लणाए विसंजोयणाए खवणाए च चरिमट्ठिदिखंडयचरिमफालिसंकमो होइ । तस्स भागहारो एयरूत्रमेत्तो । एवमेसो पंचवि कमो सुत्देण णिोि । एत्थुवसंहारगाहा—
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उब्वेल्लरण-विज्झादो श्रधापवत्त - गुणसंकमो चेय | तह सव्वसंकमो त्तिय पंचविहो संकमो यो ॥१॥
१६. एवमेदेसि पदेससंकमभेदाणं सरूवणिद्देसं काढूण संपहि तेसिं चेत्र दव्वगयविसेसजाणावण अप्पा बहुअमेत्थ कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
* उव्वेल्लणसंकमे पदेसग्गं थोवं ।
$ १७. कुदो १ अंगुला संखेज्जभागपडिभागियत्तादो ।
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१४. अब गुणसंक्रमका लक्षण कहते हैं । यथा - प्रत्येक समय में असंख्यात गुणित - रूपसे जो प्रदेशसंक्रम होता है उसे गुणसंक्रम कहते हैं । यथा - पूर्वकरण के प्रथम समय से लेकर दर्शन मोहनीयकी क्षपण में, चारित्रमोहनीयकी क्षपणा में, उपश्रमश्रेणिमें, अनन्तानुबन्धीकी विसं योजनामें, सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें तथा सम्यक्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना के अन्तिम काण्डकक्रम होता है । इसका भी भागहार पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण होकर भी अधःप्रवृत्तभागहारसे असंख्यातगुणा हीन है ।
§ १५. अब सर्बसंक्रमके स्वरूपको कहते हैं । यथा - सभी प्रदेशोंका जो संक्रम होता है उसे सर्वसंक्रम कहते हैं। वह कहाँ पर होता है ? उद्वेलनामें, विसंयोजना में और क्षपणा में अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके संक्रमके समय होता है। उसका भागहार एक प्रमाण है । इस प्रकार यह पाँच प्रकारका संक्रम इस सूत्रद्वारा दिखलाया गया है । इस विषय में यहाँ पर उपसंहार गाथा
उद्व लनसंक्रम, विध्यातसंक्रम, अधःप्रवृत्तसंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम इस प्रकार पाँच प्रकारका संक्रम जानना चाहिये ॥१॥
§ १६. इस प्रकार इन प्रदेशसंक्रमके भेदोंके स्वरूपका निर्देश करके अब उन्होंकी द्रव्यगत विशेषताका ज्ञान कराने के लिए यहाँ पर अल्पबहुत्वको करते हुए श्रागेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* उद्वेलन संक्रम में प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है ।
§ १७. क्योंकि उसे लानेका भागहार अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।