Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६८. जहा मिच्छत्तस्स पदेससंकमो णिदरिसिदो एवं सेसकग्माणं पि सगसगपडिग्गहाविरोहेण णिदरिसेयव्यो ति भणिदं होइ ।
* एदेण अहुपदेण तत्थ पंचविहो संकमो।
६६. एदेणाणंतरपरूविदेण अट्ठपदेण उत्तरपयडिपदेससंकमे बिहासणिजे तत्थ इमो पंचविहो संकमवियप्पो णायचो ति भणिदं होइ
तं जहा। ६१०. सुगममेदं पयदसंकमवियप्पसरूवणिद्देसावेक्खं पुच्छावक्क ।
* उव्वेल्लणसंकमो विज्झादसंकमो अधापवत्तसंकमो गुणसंकमो सव्वसंकमो च।
६ ११. एवमेदे उव्वेल्लणादयो पंचवियप्पा पदेससंकमस्स होति ति सुत्तत्यसमुच्चयो। तत्थुव्बेल्लणसंकमो णाम करणपरिणामेहि विणा रज्जव्वेल्लणकमेण कम्मपदेसाणं परपयडि
८. जिस प्रकार मिथ्यात्वके प्रदेशसंक्रमका उदाहरण दिया है उसी प्रकार शेष कर्मोका भी अपनी अपनी प्रग्रिह प्रकृतियोंके अविरोधरूपसे उदाहरण दिखलाना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
विशेषार्थ-यहाँ पर प्रदेशसंक्रमका विचार चल रहा है। मूल प्रकृतियोंका तो परस्परमें संक्रम नहीं होता, उत्तर प्रकृतियोंका यथायोग्य संक्रम अवश्य होता है। तदनुसार जिस प्रकृतिके प्रदेश अन्य प्रकृतिमें संक्रान्त किये जाते हैं उस प्रकृतिका वह प्रदेशसंक्रम कहलाता है। उदाहरण मूलमें दिया ही है । तात्पर्य यह है कि उत्कर्षण और अपकर्षण एक ही प्रकृतिमें होता है। पर प्रदेशसंक्रमके लिए दो प्रकारकी प्रकृतियाँ विवक्षित होती हैं। एक वे जिनमें अन्य प्रकृतियोंके प्रदेशोंका संक्रमण होता है, इन्हें प्रतिग्रह प्रकृतियों कहते हैं और दूसरी वे जिनके प्रदेशोंका अन्य प्रकृतियोंमें संक्रमण होता है, इन्हें प्रतिग्राह्यमान प्रकृतियाँ कहते हैं। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि अमुक प्रकृतियाँ प्रतिग्रहरूप हैं और अमुक प्रकृतियाँ प्रतिग्राह्यमान हैं इस प्रकार वे कुछ बटी हुई नहीं हैं। यथा समय समयानुसार सभी प्रकृतियाँ प्रतिमहरूप हैं और सभी प्रकृतियाँ प्रतिग्राह्यमानरूप हैं। आगममें नियम दिये हैं उनके अनुसार यह सब विधि जान लेनी चाहिये । इस विधिका विशेष विचार प्रकृतिसंक्रम अधिकारमें कर ही आये हैं, इसलिए पुनरुक्त दोषके भयसे यहाँ पर पुनः विचार नहीं किया है।
* इस अर्थपदके अनुसार प्रदेशसंक्रम पाँच प्रकारका है।
६६. इस पहले कहे गये अर्थपदके अनुसार उत्तरप्रकृतिप्रदेशसंक्रमका ब्याख्यान करने योग्य है। उसमें यह पाँच प्रकारका संक्रम जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* यथा। १०. प्रकृत संक्रमके भेदोंके स्वरूपके निर्देशकी अपेक्षा रखनेवाला यह पृच्छासूत्र सुगम है। * उद्वलनासंक्रम, विध्यातसंक्रम, अधःप्रवृत्तसंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम ।
६११. इस प्रकार प्रदेशसंक्रमके ये उद्वेलना आदिक पाँच भेद होते हैं यह सूत्रार्थका समुषय है। उनमेंसे करणपरिणामोंके बिना रस्सीके उकेलनेके समान कर्मप्रदेशोंका परप्रकृतिरूपसे