Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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पी०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे पंचविहसंकमसरूवणिदेसो सरूवेण संछोहणा । तस्स भागहारो अंगुलस्सासंखेज दिभागो। एदस्स विसयो वुच्चदे-तं जहा-सम्माइट्ठी मिच्छत्तं गंतूण जाव अंतोमुहुत्तं ताव सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमधापवत्तसंकमं कुणइ । तत्तो परमुव्वेल्लणासंकमं पारभिय सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं विदिघादं कुणमाणस्स जाव पलिदो० असंखे०भागमेत्तो तदुव्वेल्लणाकालो ताव णिरंतरमव्वेल्लणभागहारेण विसेसहीणो पदेससंकमो होइ । विसेसहाणीए कारणं भञ्जमाणदव्वं समयं पडि विसेसहीणं होदूण गच्छदि ति वत्तव्वं । णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं चरिमट्टिदिखंडयम्मि गुणसंकमो सव्वसंकमो च जायदे । एवमुवेल्लणसंकमसरूवपरूवणं कयं ।।
१२. संपहि विज्झादसंकमस्स परूवणा कीरदे । तं जहा—वेदगसम्मत्तकालभंतरे सव्वत्येव मिच्छत्त सम्मामिच्छत्ताणं विज्झादसंकमो होइ जाव दंसणमोहक्खवयअधापवत्तकरणचरिमसमयो ति । उवसमसम्माइट्ठिम्मि वि गुणसंकमकालादो उपरि सव्वत्थ विज्झादसंकमो होइ । एदस्स वि भागहारो अंगुलस्सासंखे०भागो। णवरि उव्वेल्लणभागहारादो असंखेन्गुणहीणो। एवमण्णासि वि पयडीणं जहासंभवं विज्झादसंकमविसओ अणुगंतव्यो।
१३. संपहि अधापवत्तसंकमस्स लक्खणं वुच्चदे। बंधपयडीणं सगबंधसंभवविसए जो पदेससंकमो सो अधापवत्तसंकमो ति भण्णदे । तस्स पडिभागो पलिदो० असंखे०भागो। तं जहा-चरित्तमोहपयडीणं पणुवीसहं पि सगबंधपाओग्गविसए बज्झमाणपयडिपडिग्गहेण अधापवत्तसंकमो होइ। संक्रान्त होना उद्वेलनासंक्रम है । उसका भागहार अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अब इसका विषय कहते हैं । यथा-सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वमें जाकर अन्तर्मुहूर्त तक सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका अधःप्रवृतसंक्रम करता है। उसके बाद उद्वेलनासंक्रमका प्रारम्भ कर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका स्थितिघात करनेवाले उसके पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण उद्वेलना कालके अन्त तक निरन्तर उलना मागहारके द्वारा विशेष हीन प्रदेशसंक्रम होता है । यहाँ पर भज्यमान द्रव्य प्रत्येक समयमें विशेष हीन होता जाता है इसे विशेष हानिका कारण कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितिकाण्डकमें गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम हो जाता है । इस प्रकार उद्वेलना संक्रमके स्वरूपका कथन किया।
६ १२. अब विध्यातसंक्रमका कथन करते हैं। यथा-वेदकसम्यक्त्वके कालके भीतर दर्शनमोहनीयकी क्षपणासम्बन्धी अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय तक सर्वत्र ही मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्वका विध्यातसंक्रम होता है। तथा उपशमसम्यग्दृष्टिके भी गुणसंक्रमके कालके बाद सर्वत्र विध्यातसंक्रम होता है। इसका भी भागहार अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाग है। इतनी विशेषता है कि उद्वेलनाके भागहारसे यह असंख्यातगुणा हीन है। इसी प्रकार अन्य प्रकृतियोंके भी यथासम्भव विध्यातसंक्रमका विषय जानना चाहिए।
१३. अब अधःप्रवृत्तसंक्रमका लक्षण कहते हैं-बन्धप्रकृतियोंका अपने बन्धके सम्भव विषयमें जो प्रदेशसंक्रम होता है उसे अधःप्रवृत्तसंक्रम कहते हैं। उसका प्रतिभाग पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। यथा-चारित्रमोहनीयकी पच्चीसों प्रकृतियोंका अपने बन्धके योग्य विषयों बध्यमान प्रकृतिप्रतिग्रहरूपसे अधःप्रवृत्तसंकृम होता है ।