Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गो०५८
उत्तरपडिपदेससंकमे सामित्त वेछावहिसा० सम्मत्तेणाबहिदजीवस्स पुणो सागरोवमपुधत्तमेतकालं परिभमणासंभवादो । ण एस दोसो, एदस्स सुत्तस्साहिप्पाए वेछावट्ठीओ सम्मण परिभमिदस्स वि पुणो सागरोवमपुधत्तमेत्तकाल सम्मसगुणेणावडाणसंभवदसणादो। ण विहत्तिसामित्तसुत्तेणेदस्स विरोहो आसंकणिज्जो; तत्तो उपएसंतरपदसणट्ठमेदस्स पयट्टत्तादो। एवं वेछावद्विसागरोवमबहिन्भूदसागरोवमपुधत्तमेत्तवेदयसम्मत्तकालमणंतरपरूविदोववत्तीए ति एसमणुपालिय अपच्छिमे मणुसभवग्गहणे देसूणपुत्रकोडिं संजमगुणसेढिणिज्जरं कादूण तदोदंसणमोहक्खवणाए अब्भुढिदो । एवं च दंसणमोहक्खवणाए अभुट्टियस्स अधापवत्तकरणचरिमसमए मिच्छत्तस्स जहण्णपदेससंकमो होइ ति सामित्ताहिसंबंधो, तस्स ताधे विज्झादसकमेण जहण्णभावसिद्धीए विप्पडिसेहाभावादो। अधापवत्तकरणचरिमसमयादो उपरि सामित्तविहाणमेत्थ किण्ण कयं ? ण, तत्थ गुणसंकमपारंभेण संकमदव्वस्स जहण्णभावाणुववत्तीदो । हेट्ठा तरिहि अधापवत्तकरणविसोहीदो अर्णतगुणहीणविसोहीए विज्झादसंकमो जहण्णो होदि ति णासंकणिज्जं, विज्झादसंकमस्स परिणामविसेसणिरवेक्खत्तादो। कथमेदं परिच्छिन्ञ्जदे ?
शंका-यह वचन नहीं बनता, क्योंकि जो जीव दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ रहा है उसका पुनः सागर पृथक्त्व काल तक उसके साथ परिभ्रमण करना नहीं बन सकता ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि इस सूत्रके अभिप्रायसे जिसने दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्यके साथ परिभ्रमण किया है उसका फिर भी सागर पृथक्त्व काल तक सम्यक्त्व गुणके साथ अवस्थान होना सम्भव दिखाई देता है। प्रकृतमें प्रदेशविभक्तिविषयक स्वामित्व सूत्रके साथ इस सूत्रका विरोध है ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि उससे भिन्न उपदेशके दिखलानेके लिए यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है।
इस प्रकार दो छयासठ सागर कालके बाहर सागर पृथक्त्व काल तक वेदकसम्यक्त्व का पहले कहा गया काल बन जाता है, इसलिए उसका पालन कर अन्तिम मनुष्यभवमें कुछ कम एक पूर्व कोटि काल तक संयम गुणने णिनिर्जरा करके अनन्तर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हुआ । इस प्रकार दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हुए जीवके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है इस प्रकार स्वामित्वका अभिसम्बन्ध करना चाहिए, क्योंकि उस समय उसके अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा जघन्यभावकी सिद्धि में किसी प्रकारका निषेध नहीं है।
शंका-अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयसे ऊपर स्वामित्वका कथन यहाँ पर क्यों नहीं किया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि वहाँ पर गुणसंक्रमका प्रारम्भ हो जानेसे संक्रम द्रव्यका जघन्यपना नहीं बन सकता।
शंका-तो नीचे अधःप्रवृत्तकरणकी विशुद्धिसे अनन्तगुणी हीन विशुद्धि होती है, अतः भधःप्रवृत्तकरण जघन्य हो जायगा ?
समाधान, ऐसी माशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि विध्यातसंक्रम परिणामविशेषकी